दिमागी संतुलन को बनाये रखे।



पर्यावरण का असंतुलित होता चक्र आज-कल इंसान के भी दिमागी पर्यावरण को घातक साबित होता नजर आ रहा है ......... और ऐसे प्रदूषित दिमाग से प्रदूषित कल्पनाये भी पैदा होकर दुनिया में अपना रंग दिखाने एवं बिखेरनी लगी है .........जैसे हाल ही में जो अमीर बने है वह फुले नहीं समां रहे है वैसे ही कुछ तत्व किसी छुट-फुट दल या संघटन के पद को पाकर हवा में उड़ने लगे है। उन्हें देख हमें उस मानसरोवर के शुभ्र-धवल हंस और एक्क्यावन तरह की उड़ाने उडनेवाले कौवे की कहानी भी याद आ जाती है। किसी सड़क या चौक में डिजिटल फ्लेक्स लगवाना या अख़बारों में छाये रहने की कवायद करना ही कुछ लोगों की जिंदगी का अहम् पैलू हो जाता है। हम उनका मुख-रस-भंग नहीं करना चाहते है फिर भी उनके आत्म-अविष्कारी पाखंड को उजागर करने से हम अपने आप को रोक नहीं पाते है।

फेसबुक पर भी कुछ अल्प-मति महोदय इतने उतावले हो जाते है की मानो औरों की अब खैर ही नहीं। कथित नशे में चूर शराबी जैसे मादकता के आनंद -सागर में गोते लगता है ......वैसे ही ये अल्प-मति महाशय अपने बाल-सुलभ विचारोंकी एवं कल्पनाओं की दुनिया में डूबकिया लगाते रहते है।

कही से भी प्रकाशित या प्रदर्शित विचारोंको चुराकर समाज-उद्धारक के रूप में पोस्ट करना तो कोई इनसे ही सीखे। उनकी नजर में तो सारे राजनितिक दल और नेता तो चोर ही है। और दुनिया में अगर कोई सत्यवादी बचे है तो सिर्फ ये ही महाशय है। लगता है जब दुनिया डूब रही थी तो नोवा की नौका में सिर्फ उन्हीके आदी-पुरुष बच पाए हो। और अब उन आदि-पुरुषों के ये चाणाक्ष वंशज दुनिया में क्रांति की पहल कर रहे है। लेकिन अगर कोई बन्दर शराब का एक घूँट पि ले तो उसकी मर्कट लीला आरम्भ हो जाती है ....वैसे ही ये सज्जन अपनी शब्द-लीला का परिचय देने लगते है। कभी-कभी मदहोशी में ये महोदय आपे के बाहर भी हो जाते है तब उन्हें रोक पाना एक मुश्किल घडी बन जाती है।

उनकी राजनितिक और जातिगत भावनाए इतनी तीव्र हो जाती है की कही ये साक्षात् ब्रह्म देव को न पूछ बैठे की अन्य लोग इस धरती पर क्यों है ? हमें कभी-कभी ऐसी आशंका भी सताने लगती है। कभी एक महोदय ने ऐसी ही टिपण्णी की थी की ,"जो अपनी जात का न हुवा वह अपने बाप का नहीं।" .....हम काफी देर तक उस की ऐसी हरकत पर हसते रहे। उसका उद्देश क्या था उसका अर्थ हमारा अंतर्मन नहीं लगा सका लेकिन हम उस निष्कर्ष तक पहुचने में कामयाब हो गए की ...उस महाशय ने उस दिन एक-दो घूँट ज्यादा ही उतार लिए होगे। वह चाहता था की फेसबुक पर जाती के बजाय  अन्य कोई बात ही ना हो। अज्ञान के अन्धकार में अंधे बनकर दिशा टटोलने का वृथा कष्ट करनेवाले उस बालक की वैचारिक क्षमता पर हमें तरस आया। और हम ने उसे समझाया भी की भाई, "क्षत्रिय केवल एक जाती-विशेष नहीं जो सिर्फ अपनी ही सोचे .....बल्कि ये एक महान व्रत है जो अपने साथ-साथ इस सृष्टि एवं चराचर का भी कल्याण सोचती है।" किसी क्षत्रिय शब्द पर बल देनेवाली सभा का एक सदस्य जिसे क्षत्रिय का अर्थ पता नहीं था और वह क्षत्रिय की बात बड़े ही आक्रमकता के साथ कर रहा था। हमने उस कथित जिज्ञासु की जिज्ञासा का हल निकलने के लिए उन्हें श्री क्षत्रिय वीर ज्योति के मंथन शिबिर में या श्री क्षत्रिय युवक संघ के किसी शिबिर में उपस्थित रहने का निमंत्रण भी दिया लेकिन अपने अहं के आत्म-तुष्टि में मग्न उस महोदय ने उस वक्त अपने भ्रमण-ध्वनी यन्त्र तक को सिमाँपरोक्ष कर के रखा।

हमारा कहने का उद्देश यह है की , सिर्फ अपनी ही परिसीमा को ही विश्व मत समझो .....हर एक नेक विचार का स्वागत करो .....और अपने आप को अगर एक महान विरासत का वंशज मानते हो तो हमें अपनी मर्यादा का उचित ख्याल भी रहे तो अच्छा होगा। हमारी भाषा-व्यवहार-आचरण से ही हमारी संस्कृति महान बनती है और विश्व के आदर के पात्र बनती है। उसे ठेंच न पहुचे। बोलने के बाद सोचने से बेहतर है की सोच कर बोलो। अपने आप को उतावले होकर आपे से बाहर मत करो। हम मध्य-युग में नहीं बल्कि वर्तमान युग में जी रहे है।

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