सफर:-" मेवाड़ से खानदेश तक ....".--ठा . जयपालसिंह गिरासे [सिसोदिया],शिरपूर




इ.स.१३०३  का समय : भारतवर्ष का मुकुटमणि दुर्गराज चित्तोड़ विदेशी आक्रांता अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण से झुंज रहा था। गढ़ के नीचे ख़िलजी ने जुल्म के कहर ढहाये हुए थे। परिणामत: युद्ध अटल था। महाराणी पद्मिनी ने १३००० स्रियों के साथ जौहर ज्वाला मे अपने आप को समर्पित कर दिया। जौहर ज्वाला मे जलती सतियों की कसम खाकर मेवाड़ के विरो ने  केसरिया धारण कर दुर्ग के किवाड़ खोल दिये और ख़िलजी की सेना पर भूंखे शेरों की तरह टूट पड़े। भीषण युद्ध हुवा। आत्मगौरव की रक्षा के लिये क्षत्रियो ने लहू की होली खेली। देखते देखते अपनी आन-बाण एवं शान की रक्षा के लिये मेवाड़ के वीर बलिवेदी पर चढ़ गये। गढ़ के बाहर कस्बो मे या जागीरों मे जो राजपूत बचे थे वे अपने धर्म तथा स्वाभिमान को बचने के लिये अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर निकल गये। इन्ही बचे हुए क्षत्रियों के २४ कुल रावल अभयसिंहजी के नेतृत्व मे मांडू की ओर चले गये। उन्हीं के सुपुत्र रावल अजयसिंहजी ने दौडाइचा मे अमरावती नदी के किनारे सं १३३३ मे अपनी जागीर कायम की. वहा उन्होने एक छोटासा किला  भी बनवाया जिसे स्थानिक लोग गढी कह कर पुकारते  है। उन्हे दो पुत्र थे। झुंजारसिंह और बलबहादूर सिंह। ई स १४५५ मे छोटे पुत्र बलबहादूरसिंह ने मालपुर मे दरबारगढ़ नामक किला बनवाया और वहा अपना स्वतंत्रराज स्थापित किया। दौडाइचा सरकार की हुकूमत ५२ गावों मे थी। मालपुर के रावल सरकार की हुकूमत भम्भागिरि [भामेर] तक थी। मालपुर मे जा बसे सिसोदिया परिवार के लोगोने १३ गाव बसाये जिनमे वैन्दाना; सुराय ;रामी; पथारे; वणी;धावड़े ;खर्दे आदि गाव प्रमुख थे.....इन्ही गावों मे से कई परिवार ओसर्ली;कोपरली; टाक़रखेड़ा;वाठोडा ;अहिल्यापुर ; पलाशनेर; होलनांथा; भवाले; विरवाडे आदि गावों मे बस गये। वहा उन्होने खेती और जमींदारी की वृद्धि की। 

      सूरत विजय के बाद लौट रहे छत्रपति शिवाजी  महाराज की फ़ौज का स्वागत दरबारगढ़ नरेश रावल रामसिंहजी ने किया था। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद दक्षिण मे लौटते युवराज शाहू महाराज और रानी येसुबाई जी को दक्षिण मे सुरक्षित पहुचाने की जिम्मेदारी मालपुर दरबारगढ़ के रावल सरकार ने उठाई थी। जिन्हे छत्रपति शाहूजी ने कोल्हापुर दरबार मे बुलाकर सन्मानित किया था और सनद बहाल की थी। शाहआलम के वक़्त भी लामकानी के रावल मोहन सिंह ने मुघलों से लोहा लिया था और खानदेश से मुघल टुकड़ियों को भगाया था।

     इसी काल मे दुर्जनसिंह रावल [जो महालकरी थे उन्हे महाला कहा  जाता था ] ने बुराई नदी के किनारे धावा बोला। वहा के कोली शासक को परास्त कर वहा अपना शासन शुरू किया। वहा नदी के किनारे विजयगढ़ नामक गढी बनाई और पाटन नाम का गाव बसाया। जहा मा आशापुरा का प्रसिद्ध मंदिर है।  इनकी ५५ गावों मे जहागीर थी और वंशविस्तार हुवा। जिनमे शिन्दखेड़ा; आलने;खलाने ;चिमठाने; दरने; रोहाणे ; तावखेड़ा; अमराला ; देगाव; लामकानी; कढरे; रामी; बलसाने ; वरुल ; घुसरे; शेवाले ; धूरखेड़ा आदि प्रमुख है।  

    १३३२ मे चावंडिया राजपूत अमरसिंह ने सातपुड़ा के घने जंगलों मे स्थित प्राचीन स्थल तोरणमाल पर कब्जा किया। महाभारत के समय यहा के राजा युवनाक्ष ने पांडवो की ओर से युद्ध मे हिस्सा लिया था और विजनवास के समय पांडवो ने यहा कुछ समय बिताया भी था। इसी वंश के रावल फतेहसिंह ने मांजरा नाम के ग्राम की स्थापना की और १३ गावों मे बस्ती बसाई। उसी काल मे सोलंखी सरदार [जो इशी नाम से जाने जाते थे] रावल सुजानसिंह ने अपनी सेना द्वारा सुवर्णगिरि पर हमला किया और वहा अपना शासन आरंभ किया। उन्ही के वंशज केसरीसिंह के बेटे मोहनसिंह ने तोरखेड़ा गढ़ी की स्थापना की और लगभग २२५ गावों मे अपना वर्चस्व स्थापित किया। उन्होने ही कोंढावल गाव बसाकर वहा एक क़िलेनुमा कोट बनवाया।  इनके परिवार के लोग तरहाड; भटाने; रंजाने; धमाने; विरदेल; बिलाडी;जसाने; कमखेड़ा ; आछी; कोटली ;हिसपुर; तावखेड़ा; डोंगरगाव आदि गावों मे जा बसे।  इसी वंश के धवलसिंह के पुत्र मदनसिंह ने  स्थानीय शासक सोना कोली को परास्त कर  कोडिड के जंगलों मे अपनी गढ़ी बनाई। कोडिड; वणावल; उपरपिंड; रुदावली; गिधाडे; आरावे; वाडी आदि गावों मे अपना वतन बनाया। इसी परिवार के विजयसिंह नांदरखेड़ा मे गये। जिनके वंशज कनकसिंह ने लांबोला गाव मे अपनी जागीर की स्थापना की। १३३२ के मध्य मे तंवर परिवार के रावल संग्रामसिंह ने नंदुरबार पर हमला किया और वहा के गवली शासक को परास्त कर अपना शासन कायम किया। उन्ही के वंशज जयसिंह ने भोंगरा गाव बसाकर सारंगखेडा [तापी के किनारे] मे अपनी जागीर की स्थापना की। जिनका सारंगखेडा;असलोद्; गोगापुर तक विस्तार रहा। 

   करौली के जादौन परिवार भी मेवाड़ की सेवा मे थे। वे भी अपने साथियों के साथ दक्षिण की ओर निकले। सूरतसिंह जादौन के वंशज विजयसिंह ने वर्तमान महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित सातपुड़ा की तलहटी मे पलासनेर नाम के गाव की स्थापना की।वहा उन्होने अपनी गढ़ी बनाई। पलाश वृक्ष का घना जंगल होने की वजह से उसका नाम पलासनेर हुवा। वहा से एक परिवार बभलाज़ मे जा बसा और वहा अपनी जागीर स्थापित की। उन्ही के वंशजो ने १६५२ मे सूर्यकान्या तापी नदी के किनारे थालनेर गाव मे जागीर प्राप्त की।  थालनेर फारूकी राज्य की राजधानी रही थी।  वहा उन्हे जामदार का किताब दिया गया।  वहा से कुछ्  परिवारोने १७०२ मे आमोदा गाव की स्थापना की। वहा उन्हे मराठा शासन काल मे देशमुख पदवी प्राप्त हुई। यहा से खानदेश के ३२ गावों मे जादौन परिवार जा बसे जिनमे तंवर की वडली; विकवेल; जैतपुर; पिंपरी; विरवादे; होलनांथा; हुम्बरडे; मलाने; भोरखेड़ा ;पथारे; रामी; सावलदा आदि प्रमुख गाव है।

    मालवा से कुछ परमार परिवार भी खानदेश मे आ बसे। वे मांडू--धार होकर तापी के किनारे शेंदनी नाम के ग्राम की स्थापना की जहा क़िलेनुमा दो बड़ी हवेलिया बनवाई। यहा से कुछ परिवार भोरख़ेड़ा और भावेर गाव मे जा बसे जिनके कुछ वंशज होलनांथा और पथारे गाव मे बस गये। इन प्रमुख घरानों के साथ तंवर परिवार भी खानदेश की ओर आकृष्ट हुये। जिन्होने वडली नाम का  गाव बसाया। होलकर शासन के समय महारानी अहिल्या देवी ने  अहिल्यापुर नाम का गाव बसाया और वहा का जिम्मा वडली के तंवर परिवार को सौपा गया। कुछ तंवर बागलान की ओर जा बसे। मालेगाव के पास कुछ गावों मे तंवर राजपूत बस्ते है। मेवाड़ से खानदेश मे आये निकुम्भ राजपुतोने शहादा तहसील मे पांच गाव बसाये.....येंडाइत परिवारो ने जलगाव  जिले मे नगरदेवला; चिचखेड़ा  आदि पांच गावों मे बस्ती बसाई। चौहानो ने भी धामनोड ,निवाली के परिसर मे अपनी बस्ती बसाई[जो वर्तमान म प्र मे है]।  बागुल बेटावद मे जा बसे। कुंडाने , हारेश्वर पिंपलगाव मे बघेल जा बसे जो आज वाघ नाम से जाने जाते है। मौर्य कुल के ४ गाव नांदरखेड़ा के साथ साथ बसाये गये। सूर्यवंशियो ने जावदा ग्राम बसवाया। सनेर वाघाला मे ; रावा मेहरगाव मे ; गांगुला चालीसगाव  और तांदूळवाड़ी में ; सिंगा सजदा में  बसे। कुछ सिसोदिया परिवार जलगाव जिले के यावल में बसे जहाँ उन्होंने छोटी सी गढ़ी भी बनवाई थी! मराठा शासन के उत्तरकाल में पेशवा के एक सरदार ने उनके वतन को छीन लिया था !

    मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश से एक राजकुमार ने मध्ययुगीन काल में वर्तमान बड़वानी राज्य  की स्थापना की थी।  और उस राज्य की सीमा भी दक्षिण में खानदेश तक थी। इस काल में मुस्लिम आक्रमण की वजह से भी इस प्रदेश से कई परिवार विस्थापित  होकर निमाड़ ; खानदेश; विदर्भ आदि क्षेत्रों में चले गए थे। 

   आज के बुरहानपुर के निकट स्थित आसिर गढ़ पर मेवाड़ से पधारे  चौहानों का वर्चस्व था। ख़िलजी के आक्रमण बाद चित्त्तोड़ से ही पधारे हुए शूरवीर टांक पंवार राजपूतो ने अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। जब चित्तोड़ पर आक्रमण होते थे तब टांक पंवार राजपूतो ने अपनी वीरता का अनुपम परिचय दिया था। ख़िलजी के आक्रमण के बाद टांक पंवार मेवाड़ से निकलकर मालवा, खानदेश, निमाड़ आदि क्षेत्रों मे चले गये थे। इन्ही के कुछ वंशजो ने ऐतिहासिक मराठा-अब्दाली पानीपत युद्ध मे भी हिस्सा लिया था। 

ख़िलजी के दक्षिण आक्रमण के बाद आसीरगढ़ का क़िला पंवारों के हाथों से छीन लिया गया था। 

ख़िलजी के गुजरात आक्रमण के वक़्त राजा करनदेव वाघेला दक्षिण मे देवगिरि की शरण मे आया। लेकिन राजा रामदेव राय की हार के बाद और उसे ख़िलजी द्वारा गुजरात मे एक जागीर बहाल किये जाने के बाद करनदेव वाघेला अपने अनुचरों के साथ महाराष्ट्रा के बाग़लन;खानदेश तथा सातपुड़ा के तटवर्ती इलाखों मे बस गये थे। अकबर के आक्रमण के वक़्त खानदेश के स्थानीय शासकों को अपनी ओर मिला दिया जाये और उनकी सेवाये ली जाये ऐसा फरमान उसने निकला था लेकिन खानदेश के स्थानीय निवासियों ने कोई प्रतिसाद नहीं दिया। खानदेश के शासक ज्यादा सुरक्षित इसलिये थे क्योंकि उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाले मार्गों पर उनका नियंत्रण था तथा यहा की प्राकृतिक व्यवस्था उनका बचाव करने मे पूर्णता: सक्षम थी।
   खानदेश प्रांत को साड़े बारा रावलों का वतन भी कहा जाता है। बारा पूर्ण तथा एक आधे ठिकाने का समावेश इसमे होता था। 
खानदेश के साड़े बारा ठिकाने निम्ननिर्दिष्ट सुचीनुसार है :-
१] दोंडाईचा २] मालपुर ३] शिन्दखेड़ा ४]  आष्टे ५]सारंगखेडा ६] रंजाने ७] लांबोला ८] लामकानी ९] चौगाव १०] हाटमोहिदा ११] वनावल १२] मांज़रे १३] करवंद [आधा वतन खानदेश मे था और आधा खानदेश के बाहर] 

   ज्यादातर बैस ; बडगुजर ; गौड़ ;भारद्वाज ; सोलंखी; खींची राजपूत महाराजा छत्रसाल के समय में दक्षिण तथा मध्य महाराष्ट्र में स्थायी रूप  से निवास करने लगे थे। वे मालवा --बुंदेलखंड --विदर्भ होते हुए दक्षिण भारत तक का सफर कर आये थे। वे संघटित रूप में रहते थे।  ऐतिहासिक खर्डा  युद्ध में उन्होंने मराठा पक्ष  का साथ देकर हैदराबाद निजाम के खिलाफ मोर्चा संभालकर बहादुरी दिखाई थी। इनके कई वंशज पुणे ; कोंकण; बीड ; नांदेड ;उस्मानाबाद   क्षेत्र में है।  वीर बन्दा  बहादुर के साथ कुछ राजपूत नांदेड के प्रान्त में आये थे।  वे यही बस गए थे। विदर्भ में गाविलगढ़ की किलेदारी भी किसी राजपूत के पास थी।  तो कुछ उत्तर भारत के राजपूत मुग़ल आक्रमण के वक़्त दक्षिण की और आकर यही बस गए थे। जो ज्यादातर विदर्भ; मध्य  तथा दक्षिण महाराष्ट्र में स्थायी हुए।  उन्हें स्थानीय निवासी परदेशी कह पुकारते थे।  मांडू के कुछ परमार चावंडिया परिवारों के साथ खानदेश मे आये थे उनमे से एक परिवार ने प्रतापपुर नाम की छोटी जागीर बनाई। राणा उनकी उपाधी रही। वडली  के तंवरो ने होल्कर स्टेट का खजाना लूटा था।
 कुछ परिवार गुजरात में स्थित सिद्धपुर , धर्मपुर ,वांसदा तथा मालवा स्थित बरवानी स्टेट से स्थानांतरीत होकर महाराष्ट्र कि भूमी में बस गए थे …. 
  मेवाड़ के वंश से श्री चन्‍द्रकिरण जी जिन्होने युवा अवस्था  मे ही सन्यास ग्रहण कर लिया था ; जलगाव के पास कानलदा नाम के गाव मे आये जहा कण्व ऋषि का प्राचीन आश्रम था। स्वामी श्री चन्द्रकिरणजी तपोवनमजी ने उस आश्रम का जीर्णोद्धार किया और वही सन्यस्त जीवन बिताया था।

  आजादी के आंदोलन मे खानदेश के राजपूतो ने बढ़-चढकर हिस्सा लिया था। महात्मा गाँधीजी तथा विर सावरकरजी ने मालपुर के दरबारगढ़ को भेट दी थी। टाकरखेड़ा के गुलाबसिंह भिलेसिंह सिसोदिया हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि के रूप मे अंग्रेज़ कॅबिनेट मे चुनकर आये थे। जो सावरकर के खास साथी थे।   सुराय के पद्मसिंह सिसोदिया हेडगेवारजी तथा गोलवलकर गुरुजी के नजदीकी थे। सन १९३६ में महाराष्ट्र के फैजपूर में कॉंग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन संपन्न हुवा था जिसमे पंडित जवाहरलाल नेहरूजी , महात्मा गांधीजी सहित देश के गणमान्य अथितियो ने शिरकत कि थी ----बारीश हो रही थी और ध्वजारोहण के मौके पर ध्वज अटक गया था ---कई लोगो ने ध्वज स्तंभ पर चढने का प्रयास भी किया लेकिन उनके सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए ---उस वक्त शिरपूर के एक राजपूत युवक ने जिन्हे बंदा पाटील कहकर पुकारते थे ---ध्वज स्तंभ पर चढाई कर ध्वज कि गांठ को मुक्त कराया ---सारा माहोल अचंभित हो गया था उनके साहस को देखकर ---खुद पंडित जी ने उनका सन्मान किया था ---.राजपूतो ने गाव तथा खेती ,व्यापार का विकास किया। अपने साथ कई जातियों का वे सहारा बने थे। स्वर्गीय सोनुसिंहजी धनसिंहजी भूतपूर्व केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री थे। श्रीमती प्रतिभाताई पाटील जी ने तो देश का सर्वोच्च स्थान महामहिम राष्ट्रपति के रूप मे प्राप्त किया था। दोंडाइचा के भूतपूर्व संस्थानिक तथा विधायक दिवंगत श्रीमान जयसिंहजी रावल साहब ने आशिया का पहला स्टार्च प्रॉजेक्ट शुरू किया जो हजारो लोगोंको  आजभी रोजगार दे रहा है। उन्होने  यहा स्कूल; उद्योग शुरू किये और लोगों को रोजगार दिलवाये। आपके पुत्र श्रीमान बापूसाहेब जयदेवसिंहजी भी विधायक रहे तथा पोते कुंवर जयकुमार रावल विद्यमान भाजपा सेना सरकार में कैबिनेट मंत्री है जिन्हें पर्यटन, रोजगार मंत्रालय की जिम्मेदारी सौपी गयी है। स्व.इन्द्रसिंहजी सिसोदिया  तीन बार विधायक रहे। शिवसेना के आर.ओ तात्या ; जनता दल महेन्द्रसिंहजी;  कॉंग्रेस के दिलीपकुमार सानंदा भी विधायक रहे थे।  पाचोरा से श्री आर ओ पाटिल शिवसेना के विधायक थे ! अब की बार पाचोरा से उन्ही के भतीजे शिवसेना के श्री किशोरसिंह पाटील  भी वर्तमान विधायक है। उत्तमसिंह पंवार सांसद रह चुके है। नंदुरबार के श्री बटेसिंहजी तथा उनके सुपुत्र श्री चन्द्रकांतजी रघुवंशी महाराष्ट्र विधान परिषद के दो बार सदस्य रहे। कई भाई -बहन सरपंच ,पार्षद , नगराध्यक्ष ,जिला परिषद सदस्य , विभिन्न स्थानिक स्वराज्य संस्थाओ मे पदाधिकारी के रूप मे भी मौजूदगी बरकरार है …। 



खान्देश प्रदेश में ज्यादातर राजपूत ''गिरासे'' टाइटल का प्रयोग करते है। जिन्हे शासक द्वारा जमीन प्रदान की जाती थी और गिरासदार अपने क्षेत्र के  कुनबियों  द्वारा खेती किया करते थे वे गरासदार मतलब गिरासे कहलाये जाते थे। फारुकी ;मराठा; होलकर ;पेशवा आदि शासन समय में कुछ जादौन परिवारों को देशमुख; पाटिल; चौधरी; जामदार आदि खिताब प्रदान किये गए थे और उन्हें प्रांतीय तथा ग्रामीण प्रशासन में महत्वपूर्ण अंग माना  गया था। राज बदलते थे --तख़्त पलटते थे लेकिन इनके अधिकार को किसीने नहीं छिना। दिल्ली की ओर से या गुजरात की ओर से जब दक्षिण की और बड़े आक्रमण होते थे तब खान्देश  कि जनता को  काफी कष्ट झेलने पड़ते थे।  ऐसे कठिन समय में वे अपने परिवार तथा प्रजा के साथ सुरक्षित जंगलो में  चले जाते थे। कई राजपूत अपने भाईयों से बिछड़ गए वे सुदूर महाराष्ट्र के दक्षिण  कि ओर  चले गए। अपने गाँव ;स्वभाव ;मूलपुरुष के नामों  पर उनके परिवार पहचाने लगे।  

मध्य युग के इस संक्रमण काल में इस शूरवीर प्रजाति ने काफी संकटों का सामना  किया। उन्हें कई बार अपनी बस्तिया उजाड़कर नयी बस्तियों  का निर्माण करना पड़ा था.…। कई बार स्थलांतरित होना  पड़ा था। घने पहाड़ों का सहारा लेकर इन्होने अपने धर्म तथा वंश  को सुरक्षित रखा। इनके साथ अन्य जाती और जनजाति के लोग भी आये थे। उनकी सुरक्षा का जिम्मा भी इन परिवारों उठाया था।  अंग्रेज के वक़्त बार उपेक्षा भी झेलनी पड़ी थी। अकाल के समय में अंग्रेज हुकूमत द्वारा लगान जब जबरन वसूल की जाती थी तब दोनों पक्ष में संघर्ष अटल होता रहा था। कई बार बार अंग्रेज सरकार का खजाना लूट लिया जाता था या उनकी टुकड़ियों पर हमले  भी किये जाते थे। तब राजपूत को तथा तत्सम जनजातियों के लोगों को  अंग्रेज सरकार काफी तकलीफ भी देती थी।  बागियों को प्रताडा जाता था।  कई बार स्थानीय शासकों की वजह से ; अकाल; भुखमरी; पानी की किल्लत; सुरक्षा आदि कारणों से उन्हें विस्थापित भी होना पड़ा था।  समाज के  चुनिंदा लोगों के पास धन तथा बल था लेकिन बहुत बड़ा वर्ग काफी कष्टमय जीवन बिताता था।  

{C} लेखक: श्री जयपालसिंह विक्रमसिंह गिरासे [सिसोदिया] मूल ग्राम: वाठोडा 

पता : प्लॉट नं :५०; विद्याविहार कॉलोनी; शिरपुर जि: धुले [महाराष्ट्र]

संपर्क: ०९४२२७८८७४० 
ईमेल :jaypalg@gmail.com
[प्रस्तुत लेख श्री जयपालसिंह गिरासे की संशोधित बौद्धिक सम्पदा है और उनकी पूर्व अनुमति के बिना प्रकाशन तथा विनियोग कानूनन जुर्म है]