"श्री रविभाई राजपूत- अभाव से प्रभाव तक की सफल कर्मयात्रा !" ---जयपालसिंह गिरासे


गीता में कहां गया है- 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः'  जो अविरत कर्म करता रहता है वह जीवन में अवश्य सफलता अर्जित करता है। आज ऐसे ही कर्मयोगी के बारे में लिखने के लिए मै बाध्य हुआ जिन्होंने 'अभाव से प्रभाव' तक सफल सफर किया है।  यह कहानी है खान्देश के सुपुत्र तथा सूरत के सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री रविभाई राजपूत की।  आज श्री रविभाई का जन्मदिन है। महाराष्ट्र के नंदुरबार जैसे आदिवासी क्षेत्र में देऊर जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेकर सुदूर गुजरात की कुबेरनगरी में अपने सुयश का परचम लहराने वाले एक होनहार युवा की यह कर्मयात्रा आज की पीढ़ी को अत्यंत प्रेरक है।  

मुझे महात्मा विदुरजी के एक श्लोक का स्मरण हो रहा है ----

"पंचैव पूजयन् लोके यशः प्राप्नोति केवलं ।

 देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ।।"

अर्थात-देवता, पित्र, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से जो पूजा करता है वह जीवन में सर्वोच्च यश,कीर्ति और सम्मान का अधिकारी होता है।

श्री रविभाई को अपने जीवन में विदुर नीति के इसी पाठ को प्रत्यक्ष साकार करते हुए मैने देखा है। अपने  माता -पिता के आदर्शों पर चलनेवाले श्री रविभाई को  जेष्ठ बुजूर्गों का सम्मान करते हुए मैंने देखा है।  विद्वतजनों की विद्वत्ता का उचित गौरव करते मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है।  स्वरोजगार के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए इच्छुक युवाओं को मार्गदर्शन करते मैंने उन्हें देखा है।  कई परिचित-अपरिचित शोषित, पीड़ीत, बिमार लोगों की आर्थिक सहायता करते हुए मैंने देखा है।   लेकीन मानवतावादी रविभाई ने कभी इस नेक कार्य का स्वयं श्रेय नहीं लिया , न फोटो निकालकर प्रसिध्दी पाने का यक्तिंचित प्रयास किया और न ही कभी परोपकारिता के वृथा अहंभाव का परिचय दिया। वे हमेशा कहते है , ' मै तो बस मेरा कर्म कर रहा हूँ, देने वाला ईश्वर है ।  देने की शक्ति ईश्वर ने मुझे प्रदान की है। जिसका मै पालन कर रहा हूँ।'

रविभाई की दानवीरता के कई उदाहरणों को मै स्वयं साक्षी रहा हूँ।  कोरोना काल में सूरत के अस्पतालों में भर्ती कई मरीज तथा उनके रिश्तेदारों के भोजन तथा रहने की सुविधा उन्होंने की थी तथा कई जरूरतमंद लोगों को आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी।  लॉकडाउन जैसे संकटकाल में उन्होंने स्वयं कई कठिनाइयों का सामना किया लेकिन कभी अपने कर्मचारियों का वेतन बंद नहीं किया।  उन्हें प्रतिदिन फ़ोन लगाकर उनके सेहत तथा सुरक्षा का भी ख्याल रखा।  मैंने दुनिया में अक्सर यह देखा है की 'लोग सुख नहीं बल्कि दुःख बाटते है।'  लेकिन रविभाई ने हमेशा अपने दुःखों को अकेले में निपटा और जो भी आनंद के क्षण रहे उन्हें हमेशा सभी लोगों के साथ मनाया।  जब भी दिवाली के वक्त वे अपने पैतृक गाँव में आते है तब गाँव की गरीब माँ-बहनों के लिए साड़ियों का तोहफा लाते है , बच्चों को हर साल स्कूलबैग्स, नोटबुक्स आदि सामग्री का वितरण करते है।  लेकिन इस नेक कार्य का उन्होंने प्रदर्शन नहीं किया।  यही उनका बड़प्पन है।  

जब तामथरे जैसे छोटे से गांव में 'श्री राधा कृष्ण प्रेम मंदिर' के न्यास की स्थापना की गयी तब ह.भ.प. श्री महेंद्रजी महाराज और न्यास के सभी सदस्यों के सामने इस विशाल मंदिर के निर्माण कार्य का बङा आव्हान था । सर्वानुमत से 'मंदिर निर्माण समिती' का अध्यक्ष श्री रविभाई को बनाया गया। इस मंदिर के निर्माण हेतू २५ लाख की राशि श्री रविभाई ने प्रदान की तथा आगे भी लगभग एक करोड़ तक की राशि संकलन का आश्वासन देकर अपने विशाल ह्रदय का परिचय दिया।  रविभाई की यह उदारता उसी विदुरनीति में उध्दृत भाव को दर्शाती है। सूरत में संपन्न होनेवाले सामाजिक मिलन समारोह हो, महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि के आयोजन हो या किसी धार्मिक समारोह का आयोजन हो, सभी कार्यों में श्री रविभाई का योगदान महत्वपूर्ण होता है।  श्री रविभाई के माध्यम से कुंवर राजेंद्रसिंहजी नरुका की अमृतवाणी द्वारा  सूरत और तामथरे गाँव में 'श्रीकृष्ण गीतासार' का यशस्वी आयोजन संपन्न रहा ।  

      मित्रो , रविभाई की यह 'अभाव से प्रभाव तक' की कर्मयात्रा विलक्षण रोचक है।   २२ नवंबर 1983 के दिन एक सामान्य कृषक परिवार में जन्मे  श्री रविभाई ने अपनी पढ़ाई अपने ननिहाल 'दरणे-रोहाणे' गांव में पूरी की थी । आर्थिक अभाव के कारण वे केवल 12 वी कक्षा तक ही अपनी पढ़ाई पूरी कर सके । सन 2001 में तकदीर की लकीर उन्हें गुजरात की कुबेर नगरी सुरत में लेकर आयी। यह आरंभ भी उस जमाने में एक साहसिक कार्य था। घर से ६० रूपये चुराकर रेल्वे का सफर कर वे सुरत आ पहुँचे। वहां एक हिरा-उद्योग प्रतिष्ठान में वे काम की तलाश में जा पहुँचे।  जब मॅनेजर ने पूछा की आप को क्या काम आता है। रविभाई ने सहज और सरल भाव से जबाब दिया की उन्हें चाय बनाना आता है। 

मॅनेजर ने उन्हें कारखाने में कारागिरों को चाय बाटने का काम सौंप दिया। जिद्द और जिज्ञासा श्री रविभाई को शांत नहीं बैठने दे रही थी। उन्होने कुछ दिन बाद वह काम छोड़ दिया और कपडा मिल में संच -मास्टर के रूप में काम संभाला।  बाद में एक साड़ी के दुकान पर नई नौकरी आरंभ की। दिनभर ग्राहकों को साड़ीयां दिखाना और उन्हें वापस घडी कर रॅक में रखना यही दिनक्रम था। इस को रविभाई ने सुनहरा अवसर माना। वे सुरत के मार्केट की कला सीख गए। वे किसी गुजराती भाई की तरह फर्राटेदार गुजराती भाषा बोलने लगे। पैसा कहां लगाना है और उसे दोगुना कैसे बनाना है यह व्यापार नीति उन्होने आत्मसात कर ली।

रविभाई की मंजिल उन्हें कभी चैन से नहीं बैठने दे रही थी । उन्होने सन 2004 में पार्टनरशिप में 'साई क्रिएशन' नाम से एक साड़ी की छोटी सी दुकान  खोल दी। इस दौरान उन्हें काफी कष्टों का सामना भी करना पड़ा था। एकबार तो उन्होंने बढ़ते कर्ज की परेशानी से उबकर जीवन समाप्ती का भी निर्णय ले लिया था लेकीन संभवतः ईश्वर को यह अमान्य था। कुछ ऐसे क्षण आए जिन्होंने रविभाई की पुनः हिम्मत बढ़ाई। 

रविभाई ने दिनरात जी तोड़कर मेहनत की और अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त की। 2006 में उन्होंने दो नए दुकानों की स्थापना की। रविभाई ने 'आरंभ है प्रचंड..' के भाव से अपनी व्यापारयात्रा बिना रूके -बिना थके जारी रखी। सन 2008 से लेकर 2023 तक के इस सफर में श्री रविभाई के लगभग 12 भव्य वस्त्रदालन सुरत, अहमदाबाद , जयपूर जैसे महानगरों में खुल गए है । इस यात्रा में श्री संदीपभाई, श्री जयपालभाई का अनमोल सहयोग उन्हें निरंतर मिलता रहा।  आज दुनिया के लगभग 58 देशों तक श्री रविभाई का निर्यात-व्यापार विस्तारित हो गया है। साड़ी के व्यापार के साथ-साथ  'गारमेंट मॅन्यूफॅक्चरींग' में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली है। आज लगभग 325 युवक-युवतियों को उन्होंने पूर्णकालिन रोजगार तो उपलब्ध कर दिया है साथ-साथ सुदूर गावों तक हजारों माता-बहनों को रिटेल व्यापार के माध्यम से आत्मनिर्भर होने का अवसर भी उन्होने उपलब्ध किया  है। श्री रविभाई की इस उड़ान के लिए कई संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कृत भी किया है।  हाल ही में बॉलीवुड को दर्जेदार वस्र उपलब्ध कराने के लिए उन्हें  अत्यंत प्रतिष्ठित 'दादासाहेब फालके गौरव पुरस्कार' से उन्हें सम्मानित किया गया है।  

मैंने श्री रविभाई के साथ कई क्षण बिताए है। कई लंबी यात्राएं भी की है। मुझे लिखने के लिए श्री रविभाई ने हमेशा प्रोत्साहन दिया तथा ग्रंथों के प्रकाशन के लिए अगर आवश्यकता हो तो उदार आर्थिक सहयोग भी किया है।  लगातार दो दशकों से हमारी यह 'कृष्ण-सुदामा' की दोस्ती अविरत कायम है। इतना बड़ा कद और क्षमता होने के बावजूद भी उन्होंने अपने बड़प्पन का कभी अहसास नहीं होने दिया। 'इदं न मम:' भाव से सतत कार्यरत श्री रविभाई के भविष्य में भी कई आयामों पर कार्य करने की तथा गाँव के लोगों के लिए रोजगार के संसाधन उपलब्ध कराने की महत्वाकांक्षा है।  मुझे यह अटूट विश्वास है की श्री रविभाई उन्हें भी पूरा करेंगे। 

मै श्री रविभाई के जन्मदिन के इस पावन अवसर पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ।  

                                                        शुभचिंतक तथा लेखक : श्री जयपालसिंह विक्रमसिंह गिरासे 

"भारतेश्वर सम्राट पृथ्वीराज चौहान और इतिहास के कुछ तथ्य"


         


                        

वर्तमान में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के इतिहास के प्रति कई भ्रांतिया लोगों द्वारा फैलाई जा रही है।  अभी-अभी अक्षयकुमार द्वारा मुख्य भूमिका अभिनीत 'सम्राट पृथ्वीराज' नामक फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद विवाद उठ रहे है।  प्रस्तुत फिल्म में न तो पृथ्वीराज चौहान जैसे महान शासक को न्याय दिया गया और न ही उनका सही इतिहास बताने का कोई प्रयास किया गया है।  इतिहास विकृतिकरण के जो षड़यंत्र वर्तमान में चल रहे है या चलाये जा रहे है उनमें इस फिल्म के माध्यम से एक और नाम जुड़ गया।  हालांकि इतिहास को विकृत कराने में तथा गलत धारणाएं बढ़ाने-फैलाने में फिल्म, धारावाहिक आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  आम जनमानस कभी इतिहास का अध्ययन नहीं करता है और न ही वह किसी विवादों की गहराई में जाता है।  उसपर जो थोपा जाता है वह उसपर विश्वास करने लगता है।  और यही भेड़चाल इतिहास विकृतिकरण गैंग आजकल कर रही है।  जो इतिहास या इतिहास के महान पात्रों की भूमिका या पहचान  मुग़ल-अंग्रेज काल में भी नहीं बदली जो आज के वर्तमान में खतरे में आ गयी है। महाराज जयचंद जैसे महान शासक को एक सोची-समझी साजिश की तरह देशद्रोही बताया गया , इतिहास में उनका नाम बदनाम किया गया। कई कतिपय लेखकों ने किवदंतियों के आधार पर भ्रामक जानकारिया पैदा की है जिन्हे इतिहास के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है।  

कुछ ग्रंथों का अध्ययन कर यहां कुछ रोचक तथ्य समकालीन इतिहास के सन्दर्भ में प्रस्तुत है।  

 (१) कन्नौज नरेश महाराज जयचंद जी राठौड नहीं अपितु गहरवार राजपूत थे। 

(२) महाराज जयचंद एक बेहद धर्मपरायण तथा विशाल सेना के स्वामी थे। जिन्होंने तत्कालीन भारत के तीर्थक्षेत्रों पर कई घाट -किले और विशाल मंदिरों का निर्माण किया था।   

(३) उनकी 'संयोगिता' नामक कोई पुत्री नहीं थी।  संयोगिता चंदबरदाई की कविकल्पना मात्र है। सम्राट पृथ्वीराज चौहान अजमेर के शासक थे लेकिन उन्हें बाद में उनके नानाजी की दिल्ली की सत्ता भी प्राप्त हो गयी थी।  दो संयुक्त राज्यों के वे स्वामी बन गए थे।  स्वाभाविक है की कवी चंदबरदाई ने उन्हें संयुक्ता का हरण करनेवाला कहा होगा।  

(४) पृथ्वीराज चौहान तथा महाराज जयचंद के समकालीन काल के राजसूय यज्ञ या स्वयंवर आदि प्राचीन प्रथा विलुप्त हो गयी थी।  अगर राजसूय यज्ञ या स्वयंवर किया जाता तो समकालीन किसी न किसी ग्रंथ ,साहित्य, ऐतिहासिक दस्तावेज, शिलालेख आदि माध्यम से कुछ न कुछ जानकारी अवश्य प्राप्त होती।  यह प्रथा प्राचीन भारत में जीवित थी और न की मध्ययुगीन भारत में।  

(५) जयचंद गहरवार और पृथ्वीराज चौहान मौसेरे भाई नहीं थे।  उनके बिच कोई निजी शत्रुता नहीं थी।  दो भिन्न शासकों के खेमे में साम्राज्यविस्तार की महत्वाकांक्षा का प्रबल होना स्वाभाविक है लेकिन फिर भी जयचंद द्वारा घोरी को निमंत्रित किया जाना इसके लिए समकालीन इतिहास या अन्य ग्रंथों में कोई भी पुख्ता प्रमाण नहीं है।  दुनिया के कई महान इतिहासकारों ने महाराज जयचंद के निर्दोष होने के प्रमाण दिए है।   

(६)  युद्ध की सहायता के किए गए आव्हान को गंभीरता से तभी लिया जाता है जब सैनिकी सहायता या आर्थिक सहायता की पहल की गयी हो।  

(७) महाराज जयचंद ने घोरी को निमंत्रण दिया यह मिथक है जिसके कोई आधार नहीं। महाराज जयचंद की सेना इतनी विशाल थी की वे अकेले  सम्राट पृथ्वीराज चौहान से लड़ सकते थे। क्योंकि घोरी ने महाराज जयचंद पर भी आक्रमण किया और उस युद्ध में महाराज जयचंद भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे।  

(८) सम्राट पृथ्वीराज चौहान और  घोरी के बिच केवल २ युद्ध हुए थे। सन ११९१ के  प्रथम युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई थी और ११९२ में संपन्न तराई के मैदान में हुए द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान वीरगति को प्राप्त हो गए थे।  घोरी की मृत्यु वर्तमान पाकिस्तान के दमैक में १२०६ में हुई थी। घोरी सम्राट पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान नहीं ले गया था।     

(८) क्षत्रिय चौहानों के वंशजों के अजयमेरु(अजमेर), दिल्ली, ढूंढाड़, नाडौल , लाट प्रदेश , धौलपुर, परबतगढ़, जालौर, सिरोही, बूंदी , अवध, गोडवाड़, हाड़ौती, नीमराना , कोटा, मैनपुरी, तुलसीपुर, देवगढ़ बारिया आदि जगहों पर राज्य स्थापित किए थे तथा  बनकोड़ा, बेदला ,बंसिया , भादैया राज, बिश्रामपुर, चंद्रपुर-पदमपुर, चंगभाकर, देआरा धामी, धरधारा, डोडियाली, गढ़ी , जरासिंघा, जशपुर, झारग्राम, करौड़िया , खारीघर ,कोरिया, कोठारिया, कुचिअकोल , लोडावल, मांडव, मोटागांव, नीमखेड़ा, पलानहेड़ा, परदा माताजी, पारसोली, पटना, पिपलोद, राय गोविंदपुर, रायपुर रानी, राजगढ़, संजेली , सरसवा , राघौगढ़ , संवत्सर, शेरगढ़, सिंगवाल ,सिंगरौली, सोनपुर, सुजाजी का गुढ़ा, तम्बोलिया, ठाकरडा , वडथाळी, वागेरी , वनवास, वाव आदि जगहों पर  प्रिंसली स्टेटस, जागीरे और जमींदारी के रूप में चौहान राजपूतों की सत्ता सन १९४७ तक कायम थी।  

                                                                         - जयपालसिंह गिरासे  (इतिहास अभ्यासक तथा लेखक) 


सन्दर्भ : (१)  कन्नौज का इतिहास --लेखक :आनंद स्वरुप मिश्र ( IAS) उत्तर प्रदेश सरकार के सेवानिवृत्त सचिव 

            (२) गैजेट रिपोर्ट्स ऑफ़ प्रिंसली स्टेट्स  


निवेदन : कृपया अत्याधिक लोगों तक यह जानकारी प्रसारित की जाए और अपने गौरवशाली इतिहास के प्रति फैलाई जा रही भ्रांतियों को मिटाने में सहयोग दे।              


"राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह -एक अपराजित योद्धा "

 

"राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह --एक अपराजित योद्धा''


लेखक : श्री जयपालसिंह गिरासे


प्रकाशक : नोशन प्रेस पब्लिकेशन, चेन्नई (तमिलनाडु)


भाषा : हिंदी


कुल  पृष्ठसंख्या  : ३३६


मूल्य : ३९९  /- (शिपिंग चार्जेस एक्स्ट्रा)


ISBN NO :  978-1-64919-951-5


(C) Jaypalsingh Girase


आप सभी को बताते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है की , श्री जयपालसिंह गिरासे  द्वारा हिंदी भाषा में लिखित 'राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह---एक अपराजित योद्धा !' यह ग्रन्थ पाठकों के लिए लम्बी प्रतीक्षा के बाद उपलब्ध  हो गया है।  

मुग़ल साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी प्रजा का  साथ लेकर जनयुद्ध खड़ा करनेवाले तथा विपरीत परिस्थितियों में भी कड़ा संघर्ष कर अपराजित रहते हुए मृतवत राष्ट्र में नवप्राणों का संचार कर जन -जन को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करनेवाले वीरशिरोमणि महाराणा प्रतापसिंह हर पीढ़ी में विश्व के सभी स्वाभिमानी और स्वतंत्रताप्रेमी नागरिकों के लिए  प्रात :स्मरणीय है।  

राष्ट्रकवि पं. रामसिंहजी  सोलंकी ने महाराणा प्रतापसिंहजी के गौरव का बखान करते हुए यह कहा था :--

"जात -धरम तज वरग मन; वृद्ध -शिशु-नर-नारिह।

जद -जद भारत जुंझसि,पाथल जय थारिह।।"

 - अर्थात: हे प्रताप, जब-जब भारत वर्ष पर विपदा की स्थिति आएगी तब -तब भारत वर्ष के आबाल-वृद्ध तथा नर-नारी अपने जाति -धर्म-पंथ-प्रान्त की संकुचित भावना से ऊपर उठकर केवल तुम्हारे नाम का जयजयकार करेगी !

-        'या तो कार्य सिद्ध होगा या मृत्यु का वरन किया जायेगा ' महाराणा प्रतापसिंह का यह भीषण प्रण उस काल के क्रांतिकारी स्वर्णिम इतिहास का गौरव लिखने के लिए कलम को सदैव प्रेरित करता है। राष्ट्र के सत्व-स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए भीषण कष्टों का सामना कर लगातार २५ साल तक साम्राज्यवादी शक्ति के साथ कड़ा संघर्ष करनेवाले राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह जी का चरित्र केवल भारत राष्ट्र के लिए ही नहीं अपितु समस्त संसार के स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्रेमी नागरिकों के लिए आज भी स्फूर्ति का स्रोत है।

-       जब भारत की कई हिन्दू-मुस्लिम शासकों  ने साम्राज्यवादी मुघल सल्तनत के सामने अपनी सार्वभौमिकता खो दी थी तब उसी प्रतिकूल संक्रमणकाल के दौरान महाराणा प्रतापसिंह मेवाड़ की धरती पर प्रखर विरोध का केंद्र बने रहे तथा सिमित संसाधन होकर भी गुरिल्ला और छापामार युद्धतंत्र का अवलंब कर अपनी स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता को कायम रखा। विश्व के इतिहास में यह अनोखा उदाहरण होगा जहाँ अपने राजा के साथ -साथ प्रजा ने भी वनवास तथा कष्टप्रद जीवन व्यतीत किया। स्वभूमि विध्वंस जैसे कठोर कदम उठाकर मुघल रणनीति को परास्त करनेवाली सामरिक रणनीति आज भी सामरिक शास्रों के अध्ययन कर्ता तथा संशोधकों का ध्यान आकृष्ट करती है।

-       

 महाराणा के इसी शौर्य से परिपूर्ण , कुशल रणनीतिकार और प्रजाहितैषी व्यक्तित्व को सुलभ भाषा के माध्यम से शब्दांकित करने का लेखक श्री जयपालसिंह गिरासे द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रयास किया गया है। श्री जयपालसिंहजी ने मेवाड़ धरा के हर एक स्थल पर प्रत्यक्ष जाकर प्रमाणों के साथ अध्ययन किया है।  मेवाड़ राजपरिवार तथा विभिन्न ठिकानेदार परिवारों से प्रत्यक्ष चर्चा कर उन्होंने सन्दर्भ जुटाए है।  मूल राजस्थानी लोकसाहित्य, विभिन्न ख्यात साहित्य, प्रशस्तियाँ , ऐतिहासिक दस्तावेज, शिलालेख, ताम्रपट्ट ,पट्टे -परवाने , दरबारी दस्तावेज , मुग़ल कालीन ग्रन्थ तथा समकालीन इतिहास से संबंधित हिंदी, अंग्रेजी , फ़ारसी तवारीखे , विभिन्न समीक्षा ग्रंथों, स्मरणिकाएँ , शोधप्रबंधों आदि  ग्रंथों का अध्ययन कर कालक्रम को सुगम और सुसंगत कर प्रस्तुत ग्रन्थ को लिखा गया है।  महाराणा प्रतापसिंह के जीवनकाल के बारे में कई प्रचलित किवदंतियों को टालकर एक राष्ट्रप्रेरक चरित्र को उजागर करने का लेखक ने प्रयास किया है।    प्रस्तुत ग्रन्थ के अंत में महाराणा प्रतापसिंह के जीवनक्रम , हल्दी घाटी युद्ध , सहयोगी साथी तथा परिवार के सदस्यों की विस्तृत जानकारी स्वतंत्र परिशिष्टों के रूप में दी गयी है।  आशा है यह ग्रन्थ पाठकों को निश्चित रूप से पसंद आएगा।

'मुग़ल-मेवाड़ संघर्ष' को 'साम्राज्यवाद के खिलाफ जनयुद्ध'  के रूप में वर्णित कर ग्रन्थ की रचना उत्तमोत्तम बनाने का प्रयास लेखक ने किया है।  अनगिनत संघर्षों के इतिहास की बखान करते समय संयत तथा मर्यादित भाषा का प्रयोग लेखक ने किया है। प्रताप  की युद्धकुशलता और सामरिक रणनीति का  अत्यंत सटीक- समर्पक भाषा में वर्णन तो किया ही है लेकिन साथ-साथ प्रताप की दूरदर्शिता , प्रजावत्सलता , सादगी , धर्मनिरपेक्षता, मानवतावादी दृष्टिकोण और प्रशासनिक गुण आदि पहलुओं पर भी सोदाहरण प्रकाश डाला है।

      प्रस्तुत ग्रन्थ का आमुख  मेवाड़ के लिए  शत्रु से लोहा लेकर प्राणोत्सर्ग करनेवाले वीर झाला मान के वंशज तथा महाराणा मेवाड़ परिवार के अत्यंत करीबी और विश्वसनीय व्यक्तित्व श्री प्रतापसिंह झाला (तलावदा , उदयपुर) ने लिखी है।  लगभग २९ पृष्ठों की व्यापक आमुख (प्रस्तावना) में गुहिल --बाप्पा रावल के काल से अर्थात मेवाड़ राज्य की स्थापना से लेकर महाराणा प्रतापसिंह के काल तक विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं का संक्षेप में परामर्श लेकर कई तथ्यों का सप्रमाण पुष्टिकरण किया है। 

      ग्रन्थ में ४३ स्वतंत्र प्रकरण है जिनमे ४ सूचि है। ग्रन्थ की आकर्षक छपाई , निर्दोष मुद्रण और अंतरंग की रचना आदि के लिए नोशन प्रेस की टीम ने अंतर्राष्ट्रीय मानकों का अवलंब किया है।  ग्रन्थ में कुल ३३६ पृष्ट है तथा साइज़ 5.5 x 8.5  की है।  ग्रन्थ के मुखपृष्ठ का प्रकार पेपरबैक है तथा ग्लॉस लैमिनेटेड है।   ग्रन्थ के अंदर के पृष्ट 70 GSM Seshai NS प्रकार के है।  

     राष्ट्र में स्वाधीनता तथा सार्वभौमिकता की प्रेरणा निरंतर जीवित रखनेवाले महाराणा प्रतापसिंह जैसे अपराजित योद्धा की संघर्षमयी कहानी पाठक जरूर पढ़े।  यह मेरा विशेष सुझाव है।

 


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प्रात:स्मरणीय महाराणा प्रतापसिंहजी के जीवन पर अत्यंत सुन्दर तथा परिपूर्ण ग्रन्थ !



"राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह --एक अपराजित योद्धा''

लेखक : श्री जयपालसिंह गिरासे 

प्रकाशक : नोशन प्रेस पब्लिकेशन, चेन्नई (तमिलनाडु)

भाषा : हिंदी 

एकूण पृष्ट : ३३६ 

मूल्य :  ३९९ /- (शिपिंग चार्जेस के साथ) 

ISBN NO :  978-1-64919-951-5


        "राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह --एक अपराजित योद्धा''  इस हिंदी भाषा में  प्रकाशित ग्रन्थ  में मेवाड़ के महान सपूत तथा हर सदी में जन -जन को स्वाभिमान , सार्वभौमिकता  और स्वतंत्रता की प्रेरणा देनेवाले  प्रखर राष्ट्रभक्त हिंदुवा सूरज वीरशिरोमणि महाराणा प्रतापसिंहजी के जन्म से मृत्यु तक के समग्र घटना क्रमों का वर्णन है।   प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन चेन्नई-सिंगापूर-मलेशिया  स्थित अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन संस्था 'नोशन प्रेस पब्लिकेशन' द्वारा किया गया है तथा विश्व के १६ प्रमुख  देशों में लगभग ३०००० से ज्यादा बुकस्टॉल्स और विभिन्न ऑनलाइन वेबसाइट्स के माध्यम से बिक्री के लिए उपलब्ध होगा।  किंडल बुक के माध्यम से अमेजॉन , फ्लिपकार्ट , नोशन प्रेस.कॉम , स्नैपडील आदि वेबसाइट्स पर भी यह ग्रन्थ उपलब्ध रहेगा।  प्रारम्भ में मेवाड़ के त्याग-तप-बलिदान से समृद्ध  गौरवशाली ऐतिहासिक पूर्वपीठिका का संक्षेप में  उल्लेख किया गया है जिससे महाराणा प्रतापसिंह के जीवनकाल में उभरे संघर्ष की पार्श्वभूमि समझना सुलभ होता है।  जिसमे सन १५६८ में चितौड़ पर मुघलों  द्वारा किये गए प्रलयंकारी आक्रमण, चितौड़ के तीसरे साके -जौहर  और महाराणा के द्वारा  अरावली के दुर्गम पहाड़ों को प्राकृतिक वनदुर्गों का स्वरुप देकर गुरिल्ला --छापामार युद्धतंत्र का प्रभावी अवलंब करना आदि घटनाएं भविष्य के कड़े संघर्ष को ध्वनित करती है। 
         महाराणा प्रतापसिंह ने अपने पूर्वजों के पगचिन्हों पर चलने का निश्चय किया तथा अपने इस प्रण को निभाने के लिए अत्यंत प्रतिकूल स्थिति में सिमित संसाधनों के साथ अनगिनत कष्टों का सामना कर अपनी प्रजा के ह्रदय में स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता की जो असाधारण ऊर्जा भर दी जिसके चलते तत्कालीन विश्व की शक्तिशाली साम्राज्यवादी मुघल सल्तनत के साथ लगातार २५ साल तक भीषण संघर्ष किया। 
       मुघल शासक अकबर द्वारा महाराणा प्रताप सिंह को झुकाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के प्रयोग किये गए। आरम्भ में  जलाल खान कोरची , कुँवर  मानसिंह , राजा भगवंत दास और राजा टोडरमल को सन्धिवार्ता के लिए भेजा लेकिन अपने दादा राणा सांगा के काल से चले आ रहे इस संघर्षमयी परंपरा के मद्देनजर और अपनी मातृभुमि के सत्व -स्वत्व -स्वाभिमान और स्वाधीनता की रक्षा के लिए महाराणा प्रतापसिंह ने इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया था।  मुघलों से किसी भी तरह का समझौता स्वयं के साथ-साथ मातृभुमि की स्वतंत्रता को भी नष्ट कर देनेवाला था इसलिए महाराणा प्रतापसिंह ने उसी भूमिका का निर्वहन किया जो अपेक्षित थी। 
        मूल भारतवासियों की स्वतंत्रता नष्ट कर उन्हें अंकित कर अपने साम्राज्य में विलीन करना और सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपने साम्राज्य का निर्माण करना मुघल सल्तनत का मुख्य उद्देश्य था।  महाराणा प्रतापसिंह ने अपनी मेवाड़ की प्रजा तथा दुर्गम पहाड़ियों के आदिवासी समुदाय के ह्रदय में प्रखर राष्ट्रभक्ति की भावना का निर्माण किया।   धन-अस्र-शस्र और सैन्य बल आदि  संसाधन सिमित थे फिर भी स्वामीनिष्ठ साथीयों  और प्रजा का असाधारण सहयोग प्राप्त कर महाराणा प्रतापसिंह ने इस संघर्ष को ''साम्राज्यवाद के खिलाफ जनयुद्ध'' का स्वरुप दिया। सिरोही , ईडर, बांसवाड़ा ,बूंदी और डूंगरपुर जैसे  पडोसी शासको के साथ गठबंधन कर साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा जीवित रखी।   स्वभूमि- विध्वंस के जरिये समतल इलाकों में खेती करना बंद कर दिया गया और  समस्त प्रजा अपने राजा के साथ दुर्गम पहाड़ों की शरण में चली गयी। प्रजा शांतिकाल में पहाड़ों में खेती करती थी और संघर्षकाल में सैनिक बन शत्रु का मुकाबला करती थी।  सांकेतिक आवाजों वाली गुप्त सांकेतिक भाषा का विकसन कर पहाड़ों में तथा शत्रु के प्रदेशो में गुप्तचरों का जाल बिछाया।  दुर्गम पहाड़ों में प्राकृतिक गुफाओं में आश्रय स्थान बनाये गए।   सभी बस्तिया खाली करवाई गयी जिससे दो फायदे हुए : या तो प्रजा शत्रु के भयंकर आक्रमणों से सुरक्षित रही और मुघल सेना को स्थानीय स्तर पर अनाज या घांस का मिलना दुर्लभ हो गया जिस प्रतिकूल स्थिति में उन्हें केवल दिल्ली या अजमेर से आनेवाली रसद पर निर्वहन करना बाध्य हो जाता था जो महाराणा के छापामार सैन्य टुकड़ियां  लूट लेती थी।  मुघल सेना पर घात लगाकर बैठे मेवाड़ के सैनिक अचानक हमले कर उनकी दयनीय अवस्था कर देते थे जिसकी वजह से बड़े से बड़े मुघल सेनानायक और उनकी तमाम रणनीतियाँ महाराणा प्रतापसिंह की रणनीति के सामने परास्त हो जाती थी। 
        महाराणा प्रतापसिंह  की शक्ति को परास्त करने के लिए कुँवर  मानसिंह , स्वयं मुघल बादशाह अकबर , शाहबाज खान ,जगन्नाथ कछवाहा , अब्दुर्रहीम खानखाना आदि के नेतृत्व में अस्र -शस्र -धन बल से सुसज्जित विशाल मुघल सेना ने कई बार प्रदीर्घ समय तक आक्रमण किये लेकिन किसी भी मुहीम को सफलता नहीं मिल सकी।  मेवाड़ के शासक अपराजित रहे। 
       महाराणा प्रतापसिंह के कार्यकाल में 'हल्दी घाटी का युद्ध' तथा 'दिवेर का युद्ध' अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते  है।   हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रतापसिंह के रूप में एक प्रचंड आत्मशक्ति वाले  आक्रमक योद्धा का दर्शन होता है तो 'दिवेर के युद्ध ' में अपने बलाढ्य शत्रु के सभी इरादों को सदा के लिए ध्वस्त करनेवाले और शत्रु दल को भयकंपित कर देनेवाले  सुनियोजित रणनीतिकार नजर आते है। 
       महाराणा प्रतापसिंह प्रखर राष्ट्रभक्त , पराक्रमी योद्धा , प्रजावत्सल शासक के साथ-साथ कला -साहित्य के आश्रयदाता भी थे।  निसारदी (नसीरुद्दीन )नामक महान चित्रकार को उन्होंने आश्रय दिया था जिसने चावंड में प्राचीन रागमाला चित्रशैली का विकास किया।  वीर हकीमखान सूरी हल्दी घाटी के युद्ध के समय महाराणा के सेनापति थे जिन्होंने मुघल सेना के साथ लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी।  महान जैन मुनि हेमरतन सूरी को उन्होंने अपना गुरु माना था।  महाराणा प्रतापसिंह ने अपने पूर्वजों की तरह 'सब समाज को लिए साथ में ,आगे है बढ़ते जाना ' इस उक्ति के अनुसार मानवता धर्म का सदैव अनुपालन किया था।  पंडित चक्रपाणि मिश्र जैसे मूर्धन्य विद्वान के सहयोग से 'मुहूर्तमाला ', 'विश्ववल्लभ और 'राज्याभिषेक पद्धति' जैसे महान ग्रंथों का निर्माण करवा लिया। 
       महाराणा के इसी शौर्य से परिपूर्ण , कुशल रणनीतिकार और प्रजाहितैषी व्यक्तित्व को सुलभ भाषा के माध्यम से शब्दांकित करने का लेखक श्री जयपालसिंह गिरासे द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रयास किया गया है। श्री जयपालसिंहजी ने मेवाड़ धरा के हर एक स्थल पर प्रत्यक्ष जाकर प्रमाणों के साथ अध्ययन किया है।  मेवाड़ राजपरिवार तथा विभिन्न ठिकानेदार परिवारों से प्रत्यक्ष चर्चा कर उन्होंने सन्दर्भ जुटाए है।  मूल राजस्थानी लोकसाहित्य, विभिन्न ख्यात साहित्य, प्रशस्तियाँ , ऐतिहासिक दस्तावेज, शिलालेख, ताम्रपट्ट ,पट्टे -परवाने , दरबारी दस्तावेज , मुग़ल कालीन ग्रन्थ तथा समकालीन इतिहास से संबंधित हिंदी, अंग्रेजी , फ़ारसी तवारीखे , विभिन्न समीक्षा ग्रंथों, स्मरणिकाएँ , शोधप्रबंधों आदि  ग्रंथों का अध्ययन कर कालक्रम को सुगम और सुसंगत कर प्रस्तुत ग्रन्थ को लिखा गया है।  महाराणा प्रतापसिंह के जीवनकाल के बारे में कई प्रचलित किवदंतियों को टालकर एक राष्ट्रप्रेरक चरित्र को उजागर करने का लेखक ने प्रयास किया है।   महाराणा प्रतापसिंह के चरित्र ने भारत के कोने-कोने में हजारों वीरों को स्वतंत्रता की प्रेरणा दी है। अंग्रेज साम्राज्यवाद के  खिलाफ लड़नेवाली भारतीय जनता के भी महाराणा प्रतापसिंह प्रेरणापुंज रहे है। 
     प्रस्तुत ग्रन्थ के अंत में महाराणा प्रतापसिंह के जीवनक्रम , हल्दी घाटी युद्ध , सहयोगी साथी तथा परिवार के सदस्यों की विस्तृत जानकारी स्वतंत्र परिशिष्टों के रूप में दिए गए है।  आशा है यह ग्रन्थ पाठकों को निश्चित रूप से पसंद आएगा।
     प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक श्री जयपालसिंह गिरासे  ''आर.सी. पटेल शिक्षण संकुल ,शिरपुर'' में अंग्रेजी विषय के अध्यापक के रुप में कार्यरत है।   अंग्रेजी विषय के शिक्षक तथा टीचर्स ट्रेनर होने के साथ -साथ आप को इतिहास में भी अत्यंत रूचि है।  राष्ट्रीय वक्ता के रूप में महाराणा प्रतापसिंह , राजस्थान के जौहर और साके , महाराणी पद्मिनी की अमर कथा , छत्रपति शिवाजी महाराज , महाराजाधिराज हर्षवर्धन, वीरमदेव और जालौर , स्वामी विवेकानंद , भारत -उत्थान ,पतन और पुनरुत्थान  आदि विषयों पर विभिन्न राज्यों में अबतक सैकड़ौ प्रकट व्याख्यान कर चुके है तथा विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में आपके लेख-कविता-व्यंग निरंतर प्रकाशित होते  रहते है। आप श्री विवेकानंद केंद्र,शिरपुर के नगरप्रमुख के रूप में कार्यरत है तथा स्वामी विवेकानंद सार्ध शति वर्ष में 'स्वामी विवेकानंद' केंद्र शिरपुर के माध्यम से सम्पूर्ण वर्षभर विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन में मुख्य भूमिका निभाई थी।  आपने भारत देश के अधिकांश राज्यों के विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों का दौरा किया है।  अहिरानी बोलीभाषा में प्रकाशित होनेवाले  '' उबगेलवाड़ी.कॉम '' नामक ब्लॉग का निर्माण तथा संचालन  कर बोलीभाषा का संवर्धन करने में आपका विशेष योगदान रहा है। 
      आप के द्वारा लिखित  राष्ट्रगौरव महाराणा प्रतापसिंह के जीवन पर आधारित १ ग्रन्थ (मराठी भाषा ) २०१५ ई. में प्रकाशित हो चूका है तथा मराठी भाषा में एक कवितासंग्रह, अहिरानी भाषा में एक व्यंग और हिंदी में 'महाराजाधिराज हर्ष' के जीवन पर एक उपन्यास  प्रकाशनाधीन है।
      'मुग़ल-मेवाड़ संघर्ष' को 'साम्राज्यवाद के खिलाफ जनयुद्ध'  के रूप में वर्णित कर ग्रन्थ की रचना उत्तमोत्तम बनाने का प्रयास लेखक ने किया है।  अनगिनत संघर्षों के इतिहास की बखान करते समय संयत तथा मर्यादित भाषा का प्रयोग लेखक ने किया है। प्रताप  की युद्धकुशलता और सामरिक रणनीति का  अत्यंत सटीक- समर्पक भाषा में वर्णन तो किया ही है लेकिन साथ-साथ प्रताप की दूरदर्शिता , प्रजावत्सलता , सादगी , धर्मनिरपेक्षता, मानवतावादी दृष्टिकोण और प्रशासनिक गुण आदि पहलुओं पर भी सोदाहरण प्रकाश डाला है।
      प्रस्तुत ग्रन्थ का आमुख  मेवाड़ के लिए हर पीढ़ी में शत्रु से लोहा लेकर प्राणोत्सर्ग करनेवाले वीर झाला मान के वंशज तथा महाराणा मेवाड़ परिवार के अत्यंत करीबी और विश्वसनीय व्यक्तित्व श्री प्रतापसिंह झाला (तलावदा , उदयपुर) ने लिखी है।  लगभग २९ पृष्ठों की व्यापक आमुख (प्रस्तावना) में गुहिल --बाप्पा रावल के काल से अर्थात मेवाड़ राज्य की स्थापना से लेकर महाराणा प्रतापसिंह के काल तक विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं का संक्षेप में परामर्श लेकर कई तथ्यों का सप्रमाण पुष्टिकरण किया है। 
      ग्रन्थ में ४३ स्वतंत्र प्रकरण है जिनमे ४ सूचि है। ग्रन्थ की आकर्षक छपाई , निर्दोष मुद्रण और अंतरंग की रचना आदि के लिए नोशन प्रेस की टीम ने अंतर्राष्ट्रीय मानकों का अवलंब किया है।  ग्रन्थ में कुल ३३६ पृष्ट है तथा साइज़ 5.5 x 8.5  की है।  ग्रन्थ के मुखपृष्ठ का प्रकार पेपरबैक है तथा ग्लॉस लैमिनेटेड है।   ग्रन्थ के अंदर के पृष्ट 70 GSM Seshai NS प्रकार के है।  
     राष्ट्र में स्वाधीनता तथा सार्वभौमिकता को प्रेरणा निरंतर जीवित रखनेवाले महाराणा प्रतापसिंह जैसे अपराजित योद्धा की संघर्षमयी कहानी पाठक जरूर पढ़े।  यह मेरा विशेष सुझाव है।

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"सती व जौहर "

"सती व जौहर"
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इस विषय पर मेरा यह लेख । मुझे लगता है यह आप सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए ।

हर बार की तरह सरकार बदलते ही पहला कार्य होता है पाठ्यक्रम बदलना । चूंकि इस बार राज्य सरकार बदलने के बाद लोकसभा चुनाव थे इसलिए अब तक इस बारे में कोई चर्चा या बयानबाजी से नेता बचते रहे अब शिक्षा मंत्रीजी का कुछ बयान आया है । 8 वीं कक्षा की पुस्तक के मुख्य पृष्ठ से जौहर का चित्र हटाने की चर्चा है । चाहे आप इसके पक्ष में हों या विपक्ष में, चाहे किसी भी पार्टी के समर्थक हों आप यह लेख अवश्य पढ़े । यह केवल एक निष्पक्ष लेख है जो आपको जानकारी उपलब्ध करवायेगा ।

सर्वप्रथम सतीयों को नमन । हर विषय की भांति इस पर भी राजनीतिक व सामाजिक वातावरण में हलचल अवश्य होगी तो हर विषय की भांति इस विषय पर भी जौहर के गौरवपूर्ण इतिहास के विरोध में लिखने व बोलने वाले बुद्दिजीवी भी कुकरमुते की तरह उग आएंगे ।

कुछ लोग सतीयों के खिलाफ लिखेंगे तो कुछ जौहर के खिलाफ जहर उगलेंगे । सबसे पहले तो आपको सती के आगे प्रथा शब्द लगाने से पहले 'प्रथा' का आश्य समझना होगा । प्रथा का मतलब है कोई भी ऐसा कार्य जो किसी जाती, धर्म या वर्ग के सभी या अधिकतर लोगों द्वारा किया जाता है । जैसे दहेज एक प्रथा है क्योंकि लगभग हर व्यक्ति इससे ग्रस्त है, इसके अलावा तीन तलाक, मृत्युभोज, घुंघट, पर्दा आदि को प्रथाओं कि श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि इससे एक वर्ग विशेष के लगभग सभी लोग ग्रस्त थे या हैं । ये कुप्रथाएं हैं या नहीं वो अलग विषय है ।

अब जब आपको ये समझ आ गया कि प्रथा क्या होती है तो सती के आगे प्रथा लगाने से पहले अपने परिवार जाति या धर्म का इतिहास उठाकर देखें कि अब तक कितनी औरतें पति की मृत्यु पर सती हुई हैं ? क्या वो संख्या भी उतनी ही है जितनी दहेज, तीन तलाक, मृत्युभोज, घुंघट, पर्दा आदि से ग्रस्त लोगों की है ? जब हम राजस्थान का इतिहास देखते हैं तो पाते हैं कि एक पुरे गांव का इतिहास खंगालने पर व 15-20 पीढ़ी में कोई 1-2 सती हुई है । यानी किसी भी समय सती होना प्रत्येक स्त्री पर अनिवार्य या बाध्यता नहीं रही ।

वो एक समर्पण था, उच्च कोटी का समर्पण जिसे मापने कि क्षमता ना आपकी कलम में है ना ही आपकी वाणी में । वो एक पवित्रता का अनुपम उदाहरण था । वो एक पति व पत्नि के बीच के प्रेम का अनुपम उदाहरण था ।

ऐसा भी नहीं है कि सती केवल क्षत्राणियां ही हुई हैं । हर जाति समुदाय में हुई हैं जैसे उदाहरण स्वरूप झुंझुनू में जो राणी सती (जिन्हें दादी सती भी कहा जाता है) का मन्दिर है वो सती माता अपने पति तनधनदास अग्रवाल के साथ सती हुई थी । अलवर में नाई जाति की महिला नारायणी देवी अपने पति के साथ सती हुई थी, जिसे वर्तमान में मुख्य रूप से मीणा जाति के लोगों द्वारा पूजा जाता है, इसी प्रकार सीकर राणी सती जी भी गैर क्षत्रिय है । ये ऐसे 2-3 नहीं अनेक उदाहरण हैं गैर क्षत्रिय सतीयों के । यानी ना यह किसी जाति आधारित परम्परा थी ना ही किसी महिला के लिए बाध्यकारी ।

आपने व हमने किताबों में सतीप्रथा के विरूद्द जिस राजाराममोहन राय के आंदोलन को पढा है वो कभी इस विषय में राजस्थान नहीं आए, ना ही उन्होंने यहां कि सतीयों के बारे में कोई अध्ययन किया या वकतव्य दिया । हो सकता है उनके बंगाल में ये कोई प्रथा रही हो लेकिन बंगाल के आधार पर राजस्थान के सांस्कृतिक मूल्यों का आंकलन करना वैसा ही है जैसा पृथ्वी के आधार पर मंगल ग्रह के बारे में कोई धारणा बनाना । इसलिए सर्वप्रथम तो सती के आगे प्रथा लगाना बंद करे ।

लेकिन चूंकि वर्तमान में इसपर सरकारी कानून है इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए व सती महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अपने घरों में चुपचाप बैठे लोगों की आस्था को बार बार चोट पहुंचाना भी तो ठीक नहीं है, कभी फिल्म के समर्थन के नाम पर कभी किसी और नाम पर ।

अब यदि बात करें जौहर की तो सती व जौहर को एक ना समझें दोनों बेहद ज्यादा अलग हैं । सती केवल पति की मृत्यु के बाद हुआ करती हैं लेकिन अमुमन जौहर मृत्यु से पहले यानी क्षत्रियों के केसरीया करने से पहले हुए हैं । हां कुछ जौहर मृत्यु के बाद भी हुए हैं जब समाचार मिले कि सभी क्षत्रिय युद्द में वीरगती को प्राप्त हुए और शत्रु कि सेना दुर्ग कि ओर आ रही है ।

ऐसे कई उदाहरण हैं जो जीवित रहते सती हुई हैं जैसे बाला सती रूप कंवर । चूंकि मैं स्वयं क्षत्रिय हूं तो आप मेरी बात पर विश्वाश ना करें तो आप भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के जीवन का अध्ययन करें आपको एक दो जगह नहीं कई जगह बाला सतीजी के वृतांतो का उल्लेख मिलेगा । अब यदि जौहर कि बात करें तो जौहर जीवित रहते हुए नहीं हो सकता ।

सती पति के प्रति समर्पण का प्रतिक है तो जौहर देशभक्ति कि उच्चतम कसौटी । लेकिन अब फिर जब बहस छिडे़गी तो लोग पद्मावत फिल्म की भांति कहेंगे जिन्होंने जौहर किया उनके बारे में क्यों पढा़या जाये, जौहर करने से अच्छा तो वो युद्द करती कुछ शत्रुओं को मारकर मरती फिर तो उन्हें ये भी कहना चाहिए कि गांधीजी को अनशन कि बजाय अंग्रेजों से युद्द करना चाहिए था कुछ को तो मारते ही इसलिए फिर तो गांधीजी को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया जाए । अन्ना को भी अनशन कि बजाय भ्रष्टाचारियों को मारना चाहिए था ।

मतलब साफ है हर काल समय के अनुसार समाज की मांग व समाज को प्रेरित किए जाने वाले उदाहरण बदल जाते हैं । जैसे आज तलवार बाजी से प्रेरित नहीं किया जा सकता लेकिन किसी समय किया जा सकता था । इसी तरह किसी समय जौहर वो अनुपम देशभक्ति का कार्य था जो आने वाली सैंकडो़ पीढ़ियों को संदेश दे सके ।

वर्तमान में कुछ लोग कहते हैं सती कोई नहीं होती थी उन्हें जबरन जलाया जाता था तो वो लोग अपने पापा या दादोसा कि उम्र के उस व्यक्ति से पुछें जिन्होंने 1987 में रूप कंवर (दिवराला, सीकर) या 1957 में उगम कंवर (तालियाना, जालौर) को या किन्हीं अन्य को पति के साथ सती होते अपनी नग्न आंखो से देखा हो (सभी जाती धर्म के लाखों लोग वहां मौजूद थे) । और यदि आप इसे आत्महत्या मानते हो तो फिर तो जैन धर्म के संतो द्वारा उपवास से प्राण त्यागना (संथारा) व बौध धर्म के संतो द्वारा भी इच्छा से प्राण त्यागना, आत्मदाह करना व सनातन धर्म के कई संतो द्वारा समाधी ली जाना भी आपकी नजरों में आत्महत्या ही हुई । इसलिए हर जगह बुद्धिजीवीता घुसाने की बजाय थोड़ा विचार भी अवश्य कर लेना चाहिए ।

इसलिए मैं तो यही कहना चाहूंगा कि ये सब बकवास जो आप लोग सोशल मिडीया पर आधुनिकता के नाम पर करते हो इससे अाप केवल अपने पुर्वाग्रहों के आधार पर अपने ज्ञान का नाश कर रहे हो इससे ज्यादा कुछ नहीं ।

इस लेख को पढकर क्षत्रिय बंधु भी ज्यादा प्रश्न ना हों वर्तमान में यह वर्ण (क्षत्रिय) सती, झुंझार, संत, महात्माओं व महापुरूषों के बताए मार्ग को छोड़ चूका है और उसी का प्रमाण है कि वर्तमान में क्षत्रिय किसी वार्ड के वार्ड पंच बनकर उस वार्ड कि जनता को भी पांच वर्ष तक खुश नहीं रख पाते । राज्य या देश तो बहुत बडी़बात हो गई ।

अंत में सरकार से निवेदन है कि उन्हें जो उचित लगे वो करें क्योंकि जनता ने उन्हें यह अधिकार दिया है लेकिन बार बार यूं आस्था पर चोट ना करें साथ ही सती व जौहर पर गलत लिखने वाले भाईयों से निवेदन है वो जरा निष्पक्षता से अध्ययन करें व क्षत्रिय भाईयों से निवेदन है कि जन्म से ही नहीं कर्म से भी क्षत्रिय बनने कि कोशिश करें । केवल वंशावलियों से ही नहीं कर्मों से भी राम व कृष्ण की संतान होने का बोध कराएं । अन्यथा कोई औचित्य नहीं है आपकी इन वंशावलियों का ।

सभी की प्रतिक्रियाएं केवल सभ्य भाषा में ही आमंत्रित है ।

- कुंवर अवधेश शेखावत (धमोरा)





पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभाताई पाटिल के साथ आत्मीय मुलाकात !