"श्री रविभाई राजपूत- अभाव से प्रभाव तक की सफल कर्मयात्रा !" ---जयपालसिंह गिरासे


गीता में कहां गया है- 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः'  जो अविरत कर्म करता रहता है वह जीवन में अवश्य सफलता अर्जित करता है। आज ऐसे ही कर्मयोगी के बारे में लिखने के लिए मै बाध्य हुआ जिन्होंने 'अभाव से प्रभाव' तक सफल सफर किया है।  यह कहानी है खान्देश के सुपुत्र तथा सूरत के सुप्रसिद्ध उद्योगपति श्री रविभाई राजपूत की।  आज श्री रविभाई का जन्मदिन है। महाराष्ट्र के नंदुरबार जैसे आदिवासी क्षेत्र में देऊर जैसे छोटे से गाँव में जन्म लेकर सुदूर गुजरात की कुबेरनगरी में अपने सुयश का परचम लहराने वाले एक होनहार युवा की यह कर्मयात्रा आज की पीढ़ी को अत्यंत प्रेरक है।  

मुझे महात्मा विदुरजी के एक श्लोक का स्मरण हो रहा है ----

"पंचैव पूजयन् लोके यशः प्राप्नोति केवलं ।

 देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ।।"

अर्थात-देवता, पित्र, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से जो पूजा करता है वह जीवन में सर्वोच्च यश,कीर्ति और सम्मान का अधिकारी होता है।

श्री रविभाई को अपने जीवन में विदुर नीति के इसी पाठ को प्रत्यक्ष साकार करते हुए मैने देखा है। अपने  माता -पिता के आदर्शों पर चलनेवाले श्री रविभाई को  जेष्ठ बुजूर्गों का सम्मान करते हुए मैंने देखा है।  विद्वतजनों की विद्वत्ता का उचित गौरव करते मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है।  स्वरोजगार के माध्यम से आगे बढ़ने के लिए इच्छुक युवाओं को मार्गदर्शन करते मैंने उन्हें देखा है।  कई परिचित-अपरिचित शोषित, पीड़ीत, बिमार लोगों की आर्थिक सहायता करते हुए मैंने देखा है।   लेकीन मानवतावादी रविभाई ने कभी इस नेक कार्य का स्वयं श्रेय नहीं लिया , न फोटो निकालकर प्रसिध्दी पाने का यक्तिंचित प्रयास किया और न ही कभी परोपकारिता के वृथा अहंभाव का परिचय दिया। वे हमेशा कहते है , ' मै तो बस मेरा कर्म कर रहा हूँ, देने वाला ईश्वर है ।  देने की शक्ति ईश्वर ने मुझे प्रदान की है। जिसका मै पालन कर रहा हूँ।'

रविभाई की दानवीरता के कई उदाहरणों को मै स्वयं साक्षी रहा हूँ।  कोरोना काल में सूरत के अस्पतालों में भर्ती कई मरीज तथा उनके रिश्तेदारों के भोजन तथा रहने की सुविधा उन्होंने की थी तथा कई जरूरतमंद लोगों को आर्थिक सहायता भी प्रदान की थी।  लॉकडाउन जैसे संकटकाल में उन्होंने स्वयं कई कठिनाइयों का सामना किया लेकिन कभी अपने कर्मचारियों का वेतन बंद नहीं किया।  उन्हें प्रतिदिन फ़ोन लगाकर उनके सेहत तथा सुरक्षा का भी ख्याल रखा।  मैंने दुनिया में अक्सर यह देखा है की 'लोग सुख नहीं बल्कि दुःख बाटते है।'  लेकिन रविभाई ने हमेशा अपने दुःखों को अकेले में निपटा और जो भी आनंद के क्षण रहे उन्हें हमेशा सभी लोगों के साथ मनाया।  जब भी दिवाली के वक्त वे अपने पैतृक गाँव में आते है तब गाँव की गरीब माँ-बहनों के लिए साड़ियों का तोहफा लाते है , बच्चों को हर साल स्कूलबैग्स, नोटबुक्स आदि सामग्री का वितरण करते है।  लेकिन इस नेक कार्य का उन्होंने प्रदर्शन नहीं किया।  यही उनका बड़प्पन है।  

जब तामथरे जैसे छोटे से गांव में 'श्री राधा कृष्ण प्रेम मंदिर' के न्यास की स्थापना की गयी तब ह.भ.प. श्री महेंद्रजी महाराज और न्यास के सभी सदस्यों के सामने इस विशाल मंदिर के निर्माण कार्य का बङा आव्हान था । सर्वानुमत से 'मंदिर निर्माण समिती' का अध्यक्ष श्री रविभाई को बनाया गया। इस मंदिर के निर्माण हेतू २५ लाख की राशि श्री रविभाई ने प्रदान की तथा आगे भी लगभग एक करोड़ तक की राशि संकलन का आश्वासन देकर अपने विशाल ह्रदय का परिचय दिया।  रविभाई की यह उदारता उसी विदुरनीति में उध्दृत भाव को दर्शाती है। सूरत में संपन्न होनेवाले सामाजिक मिलन समारोह हो, महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि के आयोजन हो या किसी धार्मिक समारोह का आयोजन हो, सभी कार्यों में श्री रविभाई का योगदान महत्वपूर्ण होता है।  श्री रविभाई के माध्यम से कुंवर राजेंद्रसिंहजी नरुका की अमृतवाणी द्वारा  सूरत और तामथरे गाँव में 'श्रीकृष्ण गीतासार' का यशस्वी आयोजन संपन्न रहा ।  

      मित्रो , रविभाई की यह 'अभाव से प्रभाव तक' की कर्मयात्रा विलक्षण रोचक है।   २२ नवंबर 1983 के दिन एक सामान्य कृषक परिवार में जन्मे  श्री रविभाई ने अपनी पढ़ाई अपने ननिहाल 'दरणे-रोहाणे' गांव में पूरी की थी । आर्थिक अभाव के कारण वे केवल 12 वी कक्षा तक ही अपनी पढ़ाई पूरी कर सके । सन 2001 में तकदीर की लकीर उन्हें गुजरात की कुबेर नगरी सुरत में लेकर आयी। यह आरंभ भी उस जमाने में एक साहसिक कार्य था। घर से ६० रूपये चुराकर रेल्वे का सफर कर वे सुरत आ पहुँचे। वहां एक हिरा-उद्योग प्रतिष्ठान में वे काम की तलाश में जा पहुँचे।  जब मॅनेजर ने पूछा की आप को क्या काम आता है। रविभाई ने सहज और सरल भाव से जबाब दिया की उन्हें चाय बनाना आता है। 

मॅनेजर ने उन्हें कारखाने में कारागिरों को चाय बाटने का काम सौंप दिया। जिद्द और जिज्ञासा श्री रविभाई को शांत नहीं बैठने दे रही थी। उन्होने कुछ दिन बाद वह काम छोड़ दिया और कपडा मिल में संच -मास्टर के रूप में काम संभाला।  बाद में एक साड़ी के दुकान पर नई नौकरी आरंभ की। दिनभर ग्राहकों को साड़ीयां दिखाना और उन्हें वापस घडी कर रॅक में रखना यही दिनक्रम था। इस को रविभाई ने सुनहरा अवसर माना। वे सुरत के मार्केट की कला सीख गए। वे किसी गुजराती भाई की तरह फर्राटेदार गुजराती भाषा बोलने लगे। पैसा कहां लगाना है और उसे दोगुना कैसे बनाना है यह व्यापार नीति उन्होने आत्मसात कर ली।

रविभाई की मंजिल उन्हें कभी चैन से नहीं बैठने दे रही थी । उन्होने सन 2004 में पार्टनरशिप में 'साई क्रिएशन' नाम से एक साड़ी की छोटी सी दुकान  खोल दी। इस दौरान उन्हें काफी कष्टों का सामना भी करना पड़ा था। एकबार तो उन्होंने बढ़ते कर्ज की परेशानी से उबकर जीवन समाप्ती का भी निर्णय ले लिया था लेकीन संभवतः ईश्वर को यह अमान्य था। कुछ ऐसे क्षण आए जिन्होंने रविभाई की पुनः हिम्मत बढ़ाई। 

रविभाई ने दिनरात जी तोड़कर मेहनत की और अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त की। 2006 में उन्होंने दो नए दुकानों की स्थापना की। रविभाई ने 'आरंभ है प्रचंड..' के भाव से अपनी व्यापारयात्रा बिना रूके -बिना थके जारी रखी। सन 2008 से लेकर 2023 तक के इस सफर में श्री रविभाई के लगभग 12 भव्य वस्त्रदालन सुरत, अहमदाबाद , जयपूर जैसे महानगरों में खुल गए है । इस यात्रा में श्री संदीपभाई, श्री जयपालभाई का अनमोल सहयोग उन्हें निरंतर मिलता रहा।  आज दुनिया के लगभग 58 देशों तक श्री रविभाई का निर्यात-व्यापार विस्तारित हो गया है। साड़ी के व्यापार के साथ-साथ  'गारमेंट मॅन्यूफॅक्चरींग' में उन्होंने सफलता प्राप्त कर ली है। आज लगभग 325 युवक-युवतियों को उन्होंने पूर्णकालिन रोजगार तो उपलब्ध कर दिया है साथ-साथ सुदूर गावों तक हजारों माता-बहनों को रिटेल व्यापार के माध्यम से आत्मनिर्भर होने का अवसर भी उन्होने उपलब्ध किया  है। श्री रविभाई की इस उड़ान के लिए कई संस्थाओं ने उन्हें पुरस्कृत भी किया है।  हाल ही में बॉलीवुड को दर्जेदार वस्र उपलब्ध कराने के लिए उन्हें  अत्यंत प्रतिष्ठित 'दादासाहेब फालके गौरव पुरस्कार' से उन्हें सम्मानित किया गया है।  

मैंने श्री रविभाई के साथ कई क्षण बिताए है। कई लंबी यात्राएं भी की है। मुझे लिखने के लिए श्री रविभाई ने हमेशा प्रोत्साहन दिया तथा ग्रंथों के प्रकाशन के लिए अगर आवश्यकता हो तो उदार आर्थिक सहयोग भी किया है।  लगातार दो दशकों से हमारी यह 'कृष्ण-सुदामा' की दोस्ती अविरत कायम है। इतना बड़ा कद और क्षमता होने के बावजूद भी उन्होंने अपने बड़प्पन का कभी अहसास नहीं होने दिया। 'इदं न मम:' भाव से सतत कार्यरत श्री रविभाई के भविष्य में भी कई आयामों पर कार्य करने की तथा गाँव के लोगों के लिए रोजगार के संसाधन उपलब्ध कराने की महत्वाकांक्षा है।  मुझे यह अटूट विश्वास है की श्री रविभाई उन्हें भी पूरा करेंगे। 

मै श्री रविभाई के जन्मदिन के इस पावन अवसर पर उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ।  

                                                        शुभचिंतक तथा लेखक : श्री जयपालसिंह विक्रमसिंह गिरासे