राणा सांगा - बाबर विवाद : क्या है वास्तव और क्या है षडयंत्र? लेखक : श्री जयपालसिंह गिरासे , शिरपुर



 किसी महान विचारक ने कहा है , 

"वो कौमे खुशनसिब होती है जिन्हें इतिहास होता है ,

वो कौमी बदनसिब होती है जिन्हें इतिहास नही होता है ,

और वो कौमे सबसे ज्यादा बदनसिब होती है जिनको इतिहास भी होता है लेकिन वो इतिहास से सबक नही लेती।"

    बरसो पहले अभिव्यक्त इस विचार ने हाल में हुए कुछ घटनाक्रम के माध्यम से यह तथ्य पुन: एकबार सिद्ध कर दिखाया है।  देशभक्त जनता को अपनी आँखे खोलने की आवश्यकता है तथा गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है।  

    पिछले सप्ताह में राज्यसभा में संपन्न एक चर्चा के दौरान समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने मेवाड़ के महाराणा सांगा और बाबर का विषय छेड़कर राणा सांगा के बारे में अपशब्दों का प्रयोग कर अपनी मानसिकता का परिचय दिया है।  ऐसा कहने का जो दुस्साहस उन्होंने किया उसके पीछे बड़े वैचारिक षडयंत्र की बू आ रही है। वोटबैंक की राजनीती के लिए राजनेता और राजनितिक दल  कितने गिर सकते है और समाज में तनाव का वातावरण पैदा कर सकते है उसका अनुभव भी देश की जनता ने लिया।  

     सांसद महोदय ने सीधे राणा सांगा जैसे महान योद्धा के बारे में गलत भ्रांतियों को जन्म देकर देश में एक नया विवाद छेड़ दिया है जिसका पुरजोर विरोध समाज के सभी वर्गों द्वारा किया जा रहा है।  सांसद ने कहा है की बाबर को दिल्लीपर आक्रमण करने का निमंत्रण राणा सांगा ने दिया था।  

    क्या है वास्तव इतिहास और क्या है षडयंत्र ? इस विषय पर प्रिंट मिडिया और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया में चर्चाओं का दौर जारी है।  जिन्हे इतिहास का ज्ञान नहीं वे लोग भी अपने ज्ञान का परिचय दे रहे है।  

आज इस आलेख के माध्यम से सांसद द्वारा फैलाई और उसके दल द्वारा प्रायोजित भ्रांतियों को दूर करते है।  

    तत्कालीन समय में राणा सांगा जैसे वीर और शक्तिशाली योद्धा को बाबर को बुलाने की या उसकी मदद लेने की कोई आवश्यकता थी या नहीं उसपर चर्चा करते है।  

   तत्कालीन समय में दिल्ली पर इब्राहिम लोदी का राज चल रहा था।  दिल्ली पर राणा सांगा की नजर थी।  सम्राट पृथ्वीराज  चौहान के बाद दिल्ली पर गुलाम वंश, लोदी वंश जैसी विदेशी आक्रांताओ की सत्ता स्थापित हो गयी थी जिसे पुन: प्राप्त करना राणा सांगा का लक्ष्य था जो स्वाभाविक था।  

   राणा सांगा उस समय के भारतवर्ष में सबसे ताकदवर सत्ताधीश थे।  सन १५०८ में वे मेवाड़ के राणा बने थे।  अपने जीवनकाल में उन्होंने सौ से ज्यादा लड़ाईया लड़ी थी।  उनके शरीर पर लगभग अस्सी घांव थे।  उनकी एक आँख, एक पैर और एक हाथ भी विभिन्न युद्धों में वे गँवा चूके थे।  उन्होंने मालवा , गुजरात और दिल्ली के सुलतानों को कई युद्धों में हरा दिया था।  महमूद लोदी को तो उन्होंने बंदी बनाकर कारावास में डाल दिया था।  १३५० के बाद मालवा में परमार वंश का शासन समाप्त हो गया था और मालवा पर मालवा के सुलतानों का अधिपत्य स्थापित हो गया था।  राणा सांगा ने मालवा में पुन: राजपूत सत्ता की स्थापना की।  कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राणा सांगा के पास लगभग ८०००० सैनिकों का  घुड़सवार दल था। ५०० हाथी और दो लाख से ज्यादा पैदल सैनिक भी थे।  तत्कालीन भारतवर्ष के ग्वाल्हेर, अजमेर, सिक्री, रायसेन, काल्पी, चंदेरी, बूंदी, गागरोन, रामपूरा और आबू के शासक उन्हें अपना सम्राट मानते थे।  डिग्गी , गलता , टोडा रायसिंह, खोर, पालीताणा , धांगध्रा , सारंगपुर क्षेत्र में राणा सांगा से सम्बंधित कई साक्ष्य, प्रमाण तथा अभिलेख आज भी मिलते है। 

    उनके नेतृत्व में ७ बड़े राजा-महाराजा , ९ राव और १०४ रावत भी थे।  दिल्ली, मालवा और गुजरात के सुलतानों के साथ उनकी लगभग १८ लड़ाईया हुई थी जिनमे राणा सांग का विजय हुवा था।  राणा सांगा ने अपने राज्य की सीमा राजस्थान से हरियाणा, मध्यप्रदेश और गुजरात तक बढ़ा दी थी।  जेम्स टॉड, जी.एन. शर्मा आणि गौरिशंकर हिराचंद ओझा जैसे कई प्रतिष्ठित इतिहासकारों ने राणा सांगा की सैन्यशक्ति के बारे में तथा उनके जीवन के बारे में विस्तृत लिखा है।  

      १५१७ में खतौली और खण्डार के युद्धों में इब्राहिम लोदी को राणा सांगा ने हराया था।  इन युद्धों में इब्राहिम लोदी को काफी बड़ा नुकसान भी उठाना पड़ा था।  लोदी ने वापस १५१८-१९ के दरम्यान राणा सांगा पर आक्रमण किया था।  धौलपुर में हुई इस जंग में इब्राहिम लोदी पुन: हार गया।  

    बाबर ने भारत पर हमला करने की कई योजनाए तैय्यार की थी।  उसने १५०३, १५०८, १५१८ और १५१९ में भारत के पंजाब प्रान्त पर आक्रमण किए थे।  जिन आक्रमणों में बाबर को हार का सामना करना पड़ा था।  उस समय इब्राहिम लोदी और पंजाब के सुभेदार दौलतखान लोदी में अनबन हो गयी थी।  दौलतखान लोदी और और सुलतान इब्राहिम लोदी के चाचा आलमखानने बाबर को दिल्ली पर हमला करने के लिए निमंत्रित किया था।  स्वयं बाबर ने अपने बाबरनामा नामक आत्मचरित्र में उसका उल्लेख किया है।

     बाबर का और राणा सांगा का किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं था और न ही इतिहास में उसके कोई प्रमाण मिलते है। राणा सांगा इतने सामर्थ्यशाली थे की उन्हें बाबर की मदद लेने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।  जब बाबर और इब्राहिम के दौरान जो संघर्ष चल रहा था उसके मद्देनजर राणा सांगा की नजर दिल्ली पर स्थिर थी।  सन १५२७ में बयाना में बाबर और राणा सांगा के दरम्यान एक युद्ध हुवा जिसमे बाबर हारकर भाग गया था।  उस समय मारवाड़ के राव गंगा के पुत्र मालदेव, चंदेरी के राजा मेदिनी राय, मेटरा के रायमल राठोड और अन्य  हिंदू शासको के साथ  मेवात के  हसनखान मेवाती जैसे मुस्लिम शासक भी राणा सांगा के नेतृत्व में लड़ रहे थे।   १६ मार्च १५२७ में खानवा के मैदान में बाबर का सामना फिर से राणा सांगा के साथ हुवा था।  खानवा आग्रा से पश्चिम में स्थित है।  इस युद्ध के समय बाबर ने बड़ी सावधानी बरती थी।  बाबर के पास लगभग अस्सी हजार सैनिक तथा बड़ी मात्रा में तोफे और बंदूके थी।  जंग के प्रारम्भ में राणा सांगा की सेना ने बाबर की सेना को पूरी तरह से परास्त कर  दिया था।  दुर्भाग्य से एक तोफगोले की वजह से जख्मी होकर राणा सांगा अपने हाथी से गिर गए और उन्हें रणक्षेत्र से सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। पृथ्विराज कच्छवाहा उन्हे बसवा नामक स्थान पर ले गये थे l उनकी कमान झाला अज्जाजी ने अपने हाथो में लेकर जंग को जारी रखा था।  बंदूके और तोफों की मार से राणा की सेना बुरी तरह से घायल हो गयी थी लेकिन वह परास्त नहीं हुई थी।   

  खानवा की जंग के दूसरे चरण में बाबर ने सफलता अर्जित की लेकिन उसे हम पूर्णस्वरूप विजय नहीं कह सकते।  अगर बाबर का पूर्ण विजय होता तो वह मेवाड़ की तरफ अवश्य आगे बढ़ता।  वह  सम्पूर्ण हिन्दुस्थान पर विजय प्राप्त करता।  लेकिन वह उतना साहस नहीं जुटा पाया क्योंकि उसे यह भय था की राणा सांगा पुन: प्रतिरोध करेंगे और उसका बचना मुश्किल होगा।  


यह वास्तविक इतिहास है।  जिसके पुख्ता प्रमाण है।  इतिहास को इतिहास की जगह रखना चाहिए।  वह अतीत की घटनाएं थी।  उस इतिहास का सम्मान करना चाहिए।  हजारो वर्षों से राणा सांगा की वीरता के गीत आज भी भारत वर्ष में गाए जाते है।  


    लेकिन वोटबैंक की छद्म राजनीती के लिए कुछ शक्तियां इतिहास के महापुरुषों पर मनगढ़त कहानियां रचकर कीचड़ उछालने का कुप्रयास करती है तो वह निंदनीय है।  हमारे पुरखों ने देश के लिए जो सर्वोच्च बलिदान दिए है।  क्या यही है लोकतंत्र में शासक बने लोंगो की कृतज्ञता ?  

     जनता को अब सजग प्रहरी बनकर ऐसे घिनौने षडयंत्रो को विफल करने के लिए आगे आना चाहिए वरना ये लोकतंत्र में पनपे ज़हरीले विचारों के लोग राष्ट्र में अराजकता का माहौल पैदा कर  सकते है।  ये लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक गिर सकते है।  राणा सांगा एक अपराजित योद्धा थे , महानायक थे , है और सदा रहेंगे इसमें कोई संदेह नहीं।  

लेखक : श्री जयपालसिंह गिरासे , शिरपुर 

[प्रस्तुत लेखक ने अबतक आठ ग्रंथो का लेखन किया है जिनमे पांच ग्रन्थ प्रकाशित हो चूंके है। ]