स्वधर्म

स्वधर्म
मै क्षत्रिय रहा  हूँ, मुझे झूंठी प्रगति से क्या लेना है?
मै कर्म वादी हूँ, किसी को मुझे क्या लेना है ?
क्षात्र-धर्म के पथ पर, मुझे तो आगे बढ़ते रहना है !
कमलरुपी लक्ष्य के पीछे, सरिता में आगे बढ़ते रहना है !!...
मै धीर-रणधीर की तरह, आगे ही बढ़ता चलूँ !
क्षत्रिय हूँ इसीलिए, ईश्वरीय कर्म कोही करता चलूँ !!
अवरोध रह में बनसके, किसी में कहाँ दम है ?
देवराज इन्द्र व् कुबेर भी, क्षत्रिय के आगे कम है !!
जिन्दगी को ही, संघर्ष मानते ही जीना है !
जग में हो जहर कितना ही, मुझे हीतो पीना है !!
मेरी रह काँटों की है, इसीलिए सबसे न्यारी है !
मेरी दुनिया काली है, पर मुझे तो प्राणों से प्यारी है !!
कष्ट कितने ही हो, किन्तु क्षात्र-धर्म हमारा है !
मरण पर मंगल गीत होते, यही इतिहास हमारा है !!
फूल नजर आते काँटों में, यह सिद्धान्त हमारा है !
हो कैसा भी, स्वधर्म प्राणों से भी प्यारा है !!
--- कुंवर राजेन्द्रसिंह नरुका [राजस्थान ]

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